1857 में अंग्रेज़ों से लोहा लेने वाले तात्या टोपे की कहानी – विवेचना
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कई स्वतंत्रता सेनानियों को इतिहास में वो जगह नहीं मिल सकी है जिसके वो हक़दार हैं. इनमें से एक हैं, 1857 के विद्रोह के नेता तात्या टोपे.
एंड्रयू वार्ड अपनी क़िताब ‘कानपुर 1857’ में लिखते हैं, “1857 के सभी विद्रोहियों में तात्या टोपे सबसे प्रतिभासंपन्न सिपहसालार थे. टोपे का क़द नाटा था, लेकिन वो हृष्ट-पुष्ट और तुरंत फ़ैसला लेने वाले कमांडर थे.”
“उनकी घनी भौहों के नीचे उनकी आँखों को देखने भर से उनकी नेतृत्व क्षमता का आभास हो जाता था. अपने हज़ारों सैनिकों के साथ यमुना नदी पार करने के बाद उन्होंने अपने रास्ते में पड़ने वाले हर बड़े शहर पर कब्ज़ा कर लिया था.”
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तात्या टोपे का जन्म 1814 में अहमदनगर ज़िले के येवला गाँव में हुआ था. शुरू में उनका नाम रामचंद्र राव रखा गया था.
उनके छोटे भाई गंगाधर उनको ‘तात्या’ कहकर पुकारते थे. आगे चलकर उनका यही नाम विख्यात हो गया.
बचपन से ही वो तलवार लेकर निकल पड़ते और अपने आप तलवार चलाने का अभ्यास किया करते. एक अंग्रेज़ लेखक ने उन्हें गैरीबाल्डी की उपमा दी, तो मराठी लेखकों ने उन्हें शिवाजी की परम्परा का अंतिम सेनानी माना.
1857 में लड़ाई के दौरान बिठूर में नाना साहब के दरबार में उनके, तात्या टोपे, ज्वाला प्रसाद और अज़ीमुल्ला ख़ान के बीच लंबी मंत्रणा चला करती थी.
तात्या टोपे का मत था कि क्रांति के लिए संयुक्त संगठन बहुत ज़रूरी है. सफलता के लिए ज़रूरी है कि सारी लड़ाई एक सेना और एक नेता के नेतृत्व में लड़ी जाए.
रंजना चितले ‘सेनापति तात्या टोपे: 1857 स्वाधीनता संग्राम का महानायक’ मे लिखती हैं, “सारे देश में लाल कमल, सेना की एक छावनी से दूसरी छावनी में घूमने लगा. क्रांति के संदेश के प्रचार का दूसरा मूक हथियार था चपाती.”
“एक गाँव का चौकीदार मुखिया को चपाती देता और पूरा गाँव उसे प्रसाद के रूप में ग्रहण करता. इसका सर्वमान्य अर्थ था पूरे गाँव का क्रांति से जुड़ जाना. इस तरह चपातियों के ज़रिए मूक संदेश गाँव-गाँव और जन-जन तक पहुँचा.”
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4 जून, 1857 की आधी रात कानपुर में विद्रोह शुरू हुआ.
नाना साहब की जय-जयकार करते हुए सेनानियों ने अंग्रेज़ों का ख़ज़ाना लूट लिया. साथ ही उन्होंने जेल का फाटक तोड़कर कैदियों को आज़ाद करा लिया.
नाना साहब, तात्या टोपे, अज़ीमुल्ला ख़ान सभी दिल्ली के लिए रवाना हुए.
लेकिन तात्या दुविधा में थे. इस तरह कानपुर छोड़कर जाना उन्हें उचित नहीं लगा. उनकी परेशानी का मूल कारण था कानपुर की महत्वपूर्ण भौगोलिक स्थिति.
कलकत्ता और दिल्ली को जोड़ने वाली जीटी रोड कानपुर से होकर जाती थी. कानपुर के गंगा पुल से होकर ही अवध के लिए रास्ता था.
रंजना चितले लिखती हैं, “तात्या ने नाना साहब को सलाह दी कि सिपाहियों को कारण स्पष्ट कर वापस कानपुर लाया जाए, ताकि अंग्रेज़ों को आगे जाने से रोका जा सके. सभी सिपाही कल्याणपुर से वापस कानपुर लौटे.”
“शहर के लोगों ने नाना साहब पेशवा को अपना राजा घोषित किया. शहर में बादशाह बहादुर शाह ज़फ़र का जुलूस निकाला गया. तात्या टोपे को सेना के नेतृत्व का दायित्व सौंपकर उन्हें सेनापति बनाया गया.”
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तब तक जनरल व्हीलर ने अपने सौनिकों और अंग्रेज़ महिलाओं और बच्चों को एक किले में बंद कर दिया.
20 दिन की लड़ाई के बाद 25 जून, 1857 को व्हीलर ने सुलह का सफ़ेद झंडा लहरा दिया.
किले का तोपखाना, सारे हथियार और ख़ज़ाना, तात्या टोपे के सैनिकों के सुपुर्द कर दिया गया.
इस बीच जनरल हैवलॉक ने पहले फ़तेहपुर पर हमला बोला और फिर कानपुर पर हमला करने की भूमिका बनाई.
अपनी किताब ‘डेटलाइन 1857 रिवोल्ट अगेंस्ट द राज’ में रुद्रांशु बैनर्जी लिखते हैं, “हैवलॉक ने पांडु नदी पारकर ओंग में नाना साहब के सैनिकों को हराकर 17 जुलाई को कानपुर में प्रवेश किया.”
“लेकिन उसके कानपुर में घुसने से पहले विद्रोहियों ने सत्तीचौरा घाट पर बिबलीघर में कैद अंग्रेज़ महिलाओं और बच्चों को मारने का फ़ैसला किया. उनकी हत्या के लिए चार या पाँच पेशेवर हत्यारों को तलवारों और लंबे चाकुओं के साथ वहाँ भेजा गया.”
“उन लोगों ने बंदियों की हत्या कर उनके शव एक कुएं में फेंक दिए. जब जेम्स नील अपने सैनिकों के साथ कानपुर में घुसा तो उसने आदेश दिया कि गिरफ़्तार किए गए सभी लोगों को फाँसी दे दी जाए. यही नहीं उसने ये भी कहा कि फाँसी के बाद सभी ब्राह्मणों को दफ़नाया जाए और मुसलमानों को जलाया जाए.”
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9 नवंबर को तात्या टोपे ने कालपी के किले पर कब्ज़ा कर लिया. तात्या की सेना में आसपास के पराजित केंद्रों इलाहाबाद, फ़तेहपुर और बनारस के सैनिक जुड़ने लगे.
जैसे ही अंग्रेज़ फ़ौज विद्रोहियों से लड़ाई के लिए लखनऊ रवाना हुई, तात्या टेपो के जासूसों ने ये ख़बर उन तक पहुंचा दी. उन्होंने तुरंत कानपुर पर हमला करने का फ़ैसला किया.
इस बीच 24 नवंबर को अवध की ओर से बड़ी संख्या में सैनिक तात्या टोपे की सेना से आ मिले.
अंग्रेजी सेना ने अचानक आगे बढ़कर हमला किया. तात्या टोपे की सेना पीछे हटने लगी.
अपनी सेना को पीछे हटाकर दुश्मन को जीत का अहसास दिलाने की मनोवैज्ञानिक तकनीक में तात्या माहिर थे.
चार्ल्स बॉल ने अपनी क़िताब ‘द हिस्ट्री ऑफ़ द इंडियन म्यूटिनी’ में लिखा, “अंग्रेज़ी सेना जीत की ख़ुशियाँ मना रही थी. उसी समय तात्या टोपे की सेना तीन तरफ़ से अंग्रेज़ी सेना पर टूट पड़ी.”
“तात्या टोपे ने अपनी सेना को दो भागों में बाँट दिया. एक भाग ने अंग्रेज़ी सेना के दाहिने ओर से और दूसरे ने बाईं ओर से हमला किया. उन्होंने इतने ज़ोरों से मार-काट की कि अंग्रेज़ सेना को भागने के सिवा और कुछ न सूझा.”
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अंग्रेज़ी सेना तो पस्त हो गई लेकिन उनके साथ आई सिखों की पलटन ने हिम्मत बाँधे रखी.
एंड्र्यू वार्ड ने अंग्रेज़ सिपाहियों की घबराहट का वर्णन करते हुए लिखा, “अफ़सरों के धमकाने के बावजूद विंडहैम के सैनिकों ने अपने ठिकाने छोड़ कर किले में शरण लेने की कोशिश की. वहाँ तैनात एक वरिष्ठ सिख सैनिक ने उन्हें रोकने की कोशिश की ताकि वो क़तार बनाकर किले में घुसें लेकिन वो उसे धक्का देते हुए किले में घुस गए.”
इस लड़ाई में अंग्रेज़ी सेना के ब्रिगेडियर विल्सन मारे गए. तात्या टोपे ने कंपनी का झंडा उखाड़ फेंका और उसकी जगह सेनानियों का हरा झंडा लहरा दिया.
विद्रोहियों ने फिर से नियंत्रण में आए कानपुर शहर पर शासन करने की कोशिश नहीं की क्योंकि तब तक पूरा शहर दोनों तरफ़ की गोलाबारी से खंडहर में बदल चुका था.
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कानपुर में तात्या टोपे की जीत की ख़बर सुनते ही जनरल कैंपबेल ने लखनऊ की ज़िम्मेदारी जनरल ऑट्रम को सौंपी और तीन हज़ार सैनिकों के साथ कानपुर की तरफ़ बढ़ चला.
कैंपबेल ने गंगा तट से विद्रोहियों पर गोले बरसाने शुरू कर दिए. विद्रोहियों ने जवाबी गोले दागे लेकिन अंग्रेज़ी सेना का वार तेज़ था जिससे उनका गंगा पार करने का रास्ता साफ़ हो गया. कैंपबेल की सेना ने कानपुर मे प्रवेश किया.
तात्या टोपे के पास पीछे हटने के सिवा कोई रास्ता नहीं बचा. उन्होंने वहाँ से बिठूर का रुख़ किया. उन्होंने हिम्मत नहीं हारी.
इस बीच उन्हें ख़बर मिली कि झाँसी पर अंग्रेज़ों ने हमला बोल दिया है. वो तुरंत रानी लक्ष्मीबाई की सहायता के लिए चल पड़े.
कर्नल ब्रूस मेलसन ने अपनी किताब ‘हिस्ट्री ऑफ़ इंडियन म्यूटिनी 1857-58’ में लिखा, “जनरल ह्यू रोज़ ने देखा कि रानी की सहायता के लिए बीस हज़ार सैनिक पहुंच चुके थे जिनका नेतृत्व एक ऐसा शख़्स कर रहा था जो दो बार कानपुर में अंग्रेज़ों को हरा चुका था और उत्साह से भरा हुआ था.”
“रोज़ ने झाँसी के किले के घेरे से अपनी सेना कम कर दी और अपनी पूरी ताक़त तात्या से लड़ाई में लगा दी. आख़िरकार, तात्या की सेना को मैदान छोड़ना पड़ा.”
इस प्रसंग का वर्णन करते हुए राइस होम्स ने अपनी किताब ‘हिस्ट्री ऑफ़ द इंडियन म्यूटनी’ में लिखा, “तात्या ने लक्ष्मीबाई से कहा, जब हम अपनी सेना के साथ आपकी सहायता के लिए आए थे, उस समय अगर किले से गोले बरसाए जाते तो अंग्रेज़ों की एक न चलती और जीत हमारी होती.”
“इस पर लक्ष्मीबाई का जवाब था, किले के एक हवलदार ने ये कहकर हमें हमले से रोका कि अंग्रेज़ सिर्फ़ हमले का दिखावा कर रहे हैं ताकि हम लोग किले से बाहर निकल आएं.”
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इसके बाद राव साहब, तात्या टोपे, रानी लक्ष्मीबाई और बांदा के नवाब अपनी सेना के साथ ग्वालियर की तरफ़ बढ़े.
31 मई, 1858 को ग्वालियर के किले पर पेशवा का झंडा फहरा दिया गया.
ग्वालियर के राजा जयाजी राव सिंधिया भागकर आगरा चले गए. कानपुर, झाँसी और कालपी की लगातार पराजय के बाद ग्वालियर विजय से तात्या टोपे के मन की पीड़ा कुछ कम हुई.
उस समय ग्वालियर में विद्रोही नेता उत्सव आयोजन कर खुशियाँ मना रहे थे. ये बात तात्या टोपे और महारानी लक्ष्मीबाई के गले नहीं उतरी क्योंकि संकट अभी टला नहीं था.
16 जून, 1858 को ह्यू रोज़ मुरीर पहुंचा. रोज़ के अंग्रेज़ घुड़सवारों ने तात्या की सेना पर पीछे से हमला बोला. यहाँ पर ह्यू रोज़ ने फिर एक चाल चली.
रंजना चितले लिखती हैं, “रोज़ ने जयाजी राव सिंधिया और उनके सरदारों को अग्रिम पंक्ति में खड़ा कर दिया ताकि ग्वालियर की प्रजा अपने राजा पर वार न कर सके. और हुआ भी यही. तात्या टोपे की तमाम कोशिशों के बावजूद ग्वालियर की सेना ने अंत तक अग्रिम पंक्ति पर वार नहीं किया क्योंकि अग्रिम पंक्ति में ग्वालियर के महाराजा जयाजी राव सिंधिया थे.”
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इसके बाद तात्या टोपे ने मालवा की तरफ़ बढ़ने की योजना बनाई.
उनके पीछे छह अंग्रेज़ अफ़सर फ़्रेडरिक रॉबर्ट्स, होम्स, पार्क, मिचेल, जेम्स होप और विलियम लॉकहार्ट लग गए.
कर्नल मेलसन ने लिखा, “उन दिनों तात्या टोपे जिस रफ़्तार से बढ़ रहे थे उसका औसत 60 मील रोज़ाना से कम नहीं पड़ता था. तात्या टोपे महान युद्ध नेता और बहुत ही विप्लवकारी प्रवृत्ति के थे. उनकी संगठन क्षमता प्रशंसनीय थी. तात्या टोपे का पीछा करने के लिए अंग्रेज़ सेनाओं को अपनी रफ़्तार तेज़ करने के लिए मजबूर होना पड़ा. अंग्रेज़ी सेनाओं के पीछे रह जाने का कारण ये था कि उसकी चाल तात्या टोपे की चाल की आधी रह जाती थी.”
छह अंग्रेज़ अफ़सर तात्या टोपे को घेरने की रोज़ नई योजना बनाते लेकिन तात्या गोरिल्ला युद्ध करते हुए इन योजनाओं को धवस्त कर आगे बढ़ जाते.
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आख़िरकार तात्या के एक साथी मान सिंह ने मुख़बरी कर दी, जिसकी वजह से तात्या टोपे अंग्रेज़ों के हत्थे चढ़ गए.
7 अप्रैल, 1859 को पाडौन के जंगल में जब तात्या टोपे की नींद खुली तो उन्होंने अपने-आप को बँधा पाया.
उस समय उनके पास से एक घोड़ा, एक तलवार, एक खुखरी, सोने के तीन कड़े और सोने की 118 मोहरें मिलीं.
उनको पहले छावनी ले जाया गया और फिर शिवपुरी में कड़े पहरे में रखा गया. तात्या टोपे पर मुकदमा चलाया गया. उनके खिलाफ़ आठ गवाह पेश किए गए.
तात्या ने सिर्फ़ इतना कहा, “कालपी की विजय तक मैंने जो कुछ भी किया अपने मालिक नाना साहब के नाम पर किया. अंग्रेज़, पुरुषों, महिलाओं और बच्चों की हत्या से मेरा कोई संबंध नहीं था. मैंने कभी किसी को फाँसी पर लटकाए जाने का हुक्म नहीं दिया.”
इस बयान को मुंशी गंगादीन ने हिंदी में लिखा और लेफ़्टिनेंट गिबन ने उसका अंग्रेज़ी में अनुवाद किया.
लिखित बयान पर तात्या टोपे ने मराठी भाषा की मोडी लिपि में हस्ताक्षर किए, ‘तात्या टोपे, कामदार, नाना साहब बहादुर.’
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15 अप्रैल को मुक़दमे का फ़ैसला भी सुना दिया गया.
फैसले में कहा गया कि 18 अप्रैल,1859 को तात्या टोपे को फाँसी पर चढ़ा दिया जाएगा.
दो दिनों तक उन्हें शिवपुरी के क़िले में कड़े पहरे में रखा गया.
रंजना चितले लिखती हैं, “18 अप्रैल की शाम 7 बजे तात्या टोपे को फाँसी के मैदान में ले जाया गया. मैदान लोगों से खचाखच भरा था. मेजर मीड ने भीड़ के सामने टोपे पर लगे आरोपों को पढ़ा और फिर जज का आदेश सुनाया. ये काम जानबूझकर भीड़ के सामने किया गया ताकि लोग आतंकित हो जाएं.”
“तात्या की बेडियाँ काटी गईं. वो उत्साहपूर्वक फाँसी के तख़्ते तक पहुंचने वाली सीढियों पर चढ़े. उन्होंने ख़ुद फाँसी के फंदे में अपनी गर्दन डाली. तख़्ता खींचा गया और कुछ ही पलों में आज़ादी की लड़ाई के महान नायक का शरीर निर्जीव हो गया.”
बीबीसी के लिए कलेक्टिव न्यूज़ रूम की ओर से प्रकाशित