Trump, Putin: यूक्रेन पर ट्रंप की बातचीत के बाद पुतिन की ‘जीत’ और भारत की ‘समझदारी’ की चर्चा क्यों
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डोनाल्ड ट्रंप ने पिछले साल अपने चुनावी कैंपेन में कहा था कि अगर वह दोबारा अमेरिका के राष्ट्रपति बनते हैं तो रूस और यूक्रेन की जंग एक दिन में ख़त्म करा देंगे. ट्रंप के इस बयान पर तब संयुक्त राष्ट्र में रूस के राजदूत ने कहा था कि यह संभव नहीं है.
संयुक्त राष्ट्र में रूस के राजदूत वैसिली नेबेंज़िया ने कहा था, ”यूक्रेन संकट का समाधान कोई एक दिन में नहीं हो सकता है.”
ट्रंप ने यहां तक कहा था कि अगर वह राष्ट्रपति होते तो रूस यूक्रेन पर हमला ही नहीं करता.
ट्रंप दुनिया के दो बड़े टकराव का समाधान बिल्कुल अलग तरह से पेश कर रहे हैं. यूक्रेन और रूस की जंग ख़त्म कराने के लिए ट्रंप पुतिन के प्रति नरमी दिखा रहे हैं तो दूसरी तरफ़ फ़लस्तीनियों की उम्मीदों पर पानी फेरते दिख रहे हैं. ट्रंप ग़ज़ा की पूरी आबादी को कहीं और शिफ़्ट करना चाहते हैं.
इन दोनों मामलों में यूरोप के कई बड़े देशों का रुख़ ट्रंप से अलग है. फ़्रांस, जर्मनी और ब्रिटेन चाहते हैं कि पुतिन को लेकर सख़्ती हो और फ़लस्तीनियों के मामले में इसराइल पर दबाव बनाया जाए.
ट्रंप ने बुधवार को रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन से फोन पर लंबी बातचीत की. इस बातचीत के बाद ट्रंप ने कहा, ”रूस के राष्ट्रपति पुतिन से हमारी अभी लंबी और ठोस बातचीत हुई. हम दोनों इस बात से सहमत थे कि रूस-यूक्रेन जंग में हो रहीं लाखों मौतों को रोकने की ज़रूरत है.”
ट्रंप ने कहा, ”हम दोनों साथ काम करने पर राज़ी हुए हैं और एक-दूसरे के यहाँ जाने पर भी सहमति बनी है. इस बात पर भी सहमति बनी है कि यूक्रेन को लेकर बातचीत जल्द शुरू होनी चाहिए. यूक्रेन और रूस की जंग में लाखों लोगों की मौत हो चुकी है. अगर मैं राष्ट्रपति होता तो युद्ध शुरू ही नहीं होता. लेकिन युद्ध हुआ, इसलिए अब रोकना होगा. मैं इस बातचीत के लिए राष्ट्रपति पुतिन को धन्यवाद देता हूँ.”
इसके बाद ट्रंप ने यूक्रेन के राष्ट्रपति वोलोदोमीर ज़ेलेंस्की से बात की. ज़ेलेंस्की से बातचीत के बाद ट्रंप ने कहा, ”यूक्रेन के राष्ट्रपति ज़ेलेंस्की से मेरी बहुत अच्छी बातचीत हुई. राष्ट्रपति जेलेंस्की भी पुतिन की तरह शांति चाहते हैं. अब समय आ गया है कि रूस और यूक्रेन की जंग का अंत हो.”
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यूक्रेन को झटका
ट्रंप और पुतिन की बातचीत को यूक्रेन के लिए झटके के रूप में देखा जा रहा है. ट्रंप की बातचीत के बाद अमेरिका के रक्षा मंत्री पीट हेगसथ ने जो कहा, उससे स्पष्ट है कि यूक्रेन के लिए चीज़ें आसान नहीं रहेंगी.
बुधवार को पीट हेगसथ ने ब्रसल्स में आयोजित डिफेंस समिट में कहा, ”आपकी तरह हम भी एक संप्रभु और संपन्न यूक्रेन चाहते हैं. लेकिन मैं यह भी कहना चाहता हूँ कि 2014 के पहले यूक्रेन की जो सीमा थी, उसे वापस हासिल करना हक़ीक़त से परे है. इस अवास्तविक लक्ष्य के पीछे भागने से युद्ध तो लंबा खिंचेगा ही भारी नुकसान भी उठाना पड़ेगा.”
रूस ने मार्च 2014 में यूक्रेन के क्राइमिया को ख़ुद में मिला लिया था. तब क्राइमिया में रूस समर्थक अलगाववादियों ने यूक्रेन के ख़िलाफ़ सशस्त्र विद्रोह कर दिया था. यूक्रेन के अभी 20 प्रतिशत भूभाग पर रूस का नियंत्रण है, इसमें मुख्य रूप से यूक्रेन के पूर्वी और दक्षिणी इलाक़े शामिल हैं.
पीट हेगसथ ने कहा कि स्थायी शांति के लिए ज़रूरी है कि सुरक्षा की गारंटी हो और फिर से जंग शुरू ना हो. पीट हेगसथ ने यह भी कहा, ”यूक्रेन को नॉर्थ अटलांटिक ट्रीटी ऑर्गेनाइज़ेशन (नेटो) की सदस्यता देने से कोई ठोस समाधान नहीं मिलेगा.”
यानी ट्रंप प्रशासन पुतिन को दो छूट देने के लिए तैयार है. पहला यह कि यूक्रेन नेटो का सदस्य नहीं बनेगा और दूसरा यह कि यूक्रेन को क्राइमिया नहीं मिलेगा.
यहां ये बताना ज़रूरी है कि राष्ट्रपति बाइडन रूस के ख़िलाफ़ कड़े से कड़े प्रतिबंध लगा रहे थे और पुतिन से बात करने के लिए तैयार नहीं थे.
बाइडन यूक्रेन को अरबों डॉलर की मदद भी दे रहे थे लेकिन ट्रंप का रुख़ बिल्कुल अलग है. यहाँ तक कि बाइडन दूसरे देशों पर भी रूस से संबंध तोड़ने का दबाव बना रहे थे.
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पुतिन की जीत क्यों?
ट्रंप का यह रुख़ क्या पुतिन की जीत है? दिल्ली स्थित जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी में रूसी और मध्य एशिया अध्ययन केंद्र में असोसिएट प्रोफ़ेसर डॉ राजन कुमार कहते हैं, ”निश्चित रूप से यह पुतिन की जीत है. जिन चीज़ों पर पुतिन अड़े हुए थे, उन सारी चीज़ों पर अमेरिका अब सहमत है. यूक्रेन नेटो का सदस्य नहीं बनेगा, इसके लिए अमेरिका तैयार है. क्राइमिया यूक्रेन के पास नहीं आएगा, इसके लिए भी ट्रंप तैयार हैं. अब तो ट्रंप पुतिन के बदले यूक्रेन पर दबाव बना रहे हैं. यहाँ तक कि ट्रंप यूक्रेन से डील करने की कोशिश कर रहे हैं कि वहाँ से मिनरल्स हासिल किया जा सके.”
डॉ राजन कुमार कहते हैं, ”ट्रंप के इस रुख़ से यूरोप, जापान, दक्षिण कोरिया और ऑस्ट्रेलिया ठगा हुआ महसूस कर रहे हैं. पूरे मामले में अमेरिका की विश्वसनीयता कम हुई है. अब अमेरिका पर भरोसा कौन करेगा? फ़्रांस और जर्मनी को अब समझ में नहीं आ रहा होगा कि क्या किया जाए. बिना अमेरिकी समर्थन के यूक्रेन टिक नहीं पाएगा. फ़्रांस और जर्मनी भी कुछ नहीं कर पाएंगे. यहाँ तक कि नेटो भी बँट जाएगा. अब लोगों को लग रहा होगा कि भारत ने रूस के मामले में बाइडन के दबाव को ख़ारिज कर बहुत ही समझदारी भरा फ़ैसला किया था. अगर भारत बाइडन के दबाव में झुक गया होता तो एक आज़माया हुआ दोस्त खो देता.”
डोनाल्ड ट्रंप के पहले कार्यकाल में राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार रहे जॉन बोल्टन ने सीएनएन से कहा है कि पुतिन ज़ेलेंस्की से बात नहीं करना चाहते थे. बोल्टन ने कहा, ”पुतिन ट्रंप से बात करना चाहते थे क्योंकि उन्हें लगता था कि कुछ ठोस नतीजे यहीं से निकलने हैं. मुझे लगता है कि पुतिन बिल्कुल सही थे.”
अंग्रेज़ी अख़बार द हिन्दू के अंतरराष्ट्रीय संपादक स्टैनली जॉनी ने लिखा है, ”बुधवार को दो चीज़ें हुईं. ट्रंप ने पुतिन को फोन किया और पीट हेगसथ ने यूक्रेन डिफेंस कॉन्टैक्ट ग्रुप को संबोधित किया. अगर आप दोनों चीज़ों को जोड़कर देखेंगे तो स्थिति स्पष्ट हो जाती है कि यूक्रेन किस ओर जा रहा है. हाल तक ज़ेलेंस्की का रुख़ यही था कि शांति तभी संभव है, जब रूस क्राइमिया समेत यूक्रेन के सभी इलाक़ों से अपना क़ब्ज़ा ख़त्म करेगा.”
जॉनी ने लिखा है, ”इससे पहले ज़ेलेंस्की ने 10 बिंदुओं वाला फॉर्मूला प्रसारित किया था. इसमें यूक्रेन के जिन इलाक़ों पर रूस का क़ब्ज़ा है, उन सभी इलाक़ों से पीछे हटना और यूक्रेन को नेटो की सदस्यता. यूक्रेन की इस मांग का अमेरिका और यूरोप समर्थन कर रहे थे. ट्रंप की जीत के बाद यूक्रेन को एक साथ कई झटके लगे हैं. यूक्रेन युद्ध के मैदान में भी मुँह की खाने लगा और ज़ेलेंस्की ने लाइन ऑफ कंट्रोल (इसका मतलब है कि जिन इलाक़ों पर रूस का कब्ज़ा है, उन पर बना रहेगा) पर युद्ध रोकने की बात करने लगे.”
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क्या पुतिन इतने भर से मान जाएंगे?
स्टैनली जॉनी ने लिखा है, ”अब पुतिन और ट्रंप के बीच बातचीत हुई है. ट्रंप ने कहा है कि वह जल्द ही युद्ध ख़त्म करने के लिए पुतिन से सीधे बात करेंगे. ट्रंप ने ये भी कहा कि यूक्रेन सभी तरह की अमेरिकी मदद के लिए भुगतान करेगा. यूक्रेन इसका भुगतान अपने प्राकृतिक संसाधनों के ज़रिए करेगा. इसका मतलब है कि यूक्रेन को मिलने वाली अमेरिकी मदद अब बंद हो गई है. यूक्रेन बिना अमेरिकी मदद के रूस से नहीं लड़ सकता है. ट्रंप युद्ध ख़त्म करना चाहते हैं और इसके लिए सीधे पुतिन से बात करेंगे. यूक्रेन ने जो इलाक़े रूस के हाथों गंवा दिए हैं, वे वापस नहीं मिलेंगे. यूक्रेन नेटो का सदस्य नहीं बनने जा रहा है. अमेरिका यूक्रेन को कोई सुरक्षा की गारंटी भी नहीं देने जा रहा है.”
क्या पुतिन क्राइमिया पर क़ब्ज़ा और यूक्रेन को नेटो का सदस्य नहीं बनाने भर से जंग ख़त्म कर देंगे?
जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी में रूस और मध्य एशिया अध्ययन केंद्र में प्रोफ़ेसर संजय कुमार पांडे कहते हैं, ”यूक्रेन के साथ जंग में रूस ने अपने बहुत सैनिक गंवाए हैं. मुझे नहीं लगता है कि पुतिन इतने भर से मान जाएंगे. फ़रवरी 2022 के बाद से यूक्रेन के 20 फ़ीसदी हिस्से पर रूस का क़ब्ज़ा है.”
प्रोफ़ेसर पांडे कहते हैं, ”मुझे नहीं लगता है कि पुतिन इन इलाकों को इतनी आसानी से यूक्रेन के हवाले कर देंगे. रूस के लोग भी देख रहे हैं कि जिस युद्ध में हज़ारों की संख्या में लोगों ने जान गंवाई, उससे हासिल क्या हुआ. नेटो का सदस्य तो यूक्रेन पहले भी नहीं था और क्राइमिया भी पहले से ही रूस के क़ब्ज़े में था. ऐसे में हासिल तो वही 20 फ़ीसदी हिस्सा है.”
अमेरिका में सरकारें बदलती हैं तो वहाँ की विदेश नीति भी कई बार पूरी तरह से बदल जाती है. ऐसे में दुनिया के कई देशों के लिए अमेरिका के साथ जाना जटिलताओं से भरा रहता है. फ़रवरी 2022 में रूस ने जब यूक्रेन पर हमला किया तो भारत पर भी दबाव था कि रूस से संबंध सीमित करे और पश्चिम के प्रतिबंधों में शामिल हो जाए लेकिन मोदी सरकार ने मानने से इनकार कर दिया था.
यहां तक कि यूक्रेन-रूस जंग में भारत का रूस से द्विपक्षीय व्यापार 60 अरब डॉलर से ऊपर चला गया. भारत ने रूस से एनर्जी आयात करना शुरू कर दिया था क्योंकि रूस डिस्काउंट दे रहा था. अमेरिका ने दबाव बनाया, लेकिन भारत ने रूस से अपने ऐतिहासिक संबंधों को जारी रखा.
प्रोफ़ेसर संजय पांडे कहते हैं, ”यह भारत की समझदारी और दूरदर्शिता थी कि बाइडन प्रशासन के दबाव में नहीं झुकी. अगर भारत बाइडन प्रशासन के दबाव में भारत झुक गया होता तो आज ट्रंप का पुतिन को लेकर जो रुख़ है, उसमें हम मुँह दिखाने लायक़ नहीं रहते. भारत ने ठोस स्टैंड लिया और ये आज बिल्कुल सही साबित हुआ. दुनिया के कई देशों के लिए यह सबक है कि अमेरिका के हिसाब से अपनी विदेश नीति में बदलाव न करें.”
भारत के विदेश मंत्री एस जयशंकर ने तो बाइडन प्रशासन के दौरान रूस को लेकर कई बार भारत का पक्ष खुलकर रखा था और रूस से संबंधों की जमकर वकालत की थी. भारत के इस रुख़ की तीसरी दुनिया के कई देशों ने तारीफ़ भी की थी.
बीबीसी के लिए कलेक्टिव न्यूज़ रूम की ओर से प्रकाशित