Mughal Empire: औरंगज़ेब की ज़िंदगी के आख़िरी 27 साल दक्षिण भारत में इस तरह बीते – विवेचना
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साल 1680 में औरंगज़ेब पूरे लाव-लश्कर के साथ दक्षिण भारत की ओर कूच कर गए, विशाल फ़ौज, पूरा हरम और एक बेटे को छोड़कर तीनों बेटे उनके साथ गए.
औरंगज़ेब की जीवनी ‘औरंगज़ेब, द मैन एंड द मिथ’ में लेखिका ऑड्री ट्रुश्के लिखती हैं, “शामियानों के साथ बढ़ता लश्कर, बाज़ार, बादशाह का कारवाँ, उनके साथ चलते हुए अफ़सरों और नौकरों का पूरा हुजूम, ये एक देखने लायक दृश्य होता था.”
“औरंगज़ेब पुरानी मुग़ल परंपरा को निभा रहे थे जिसके अनुसार राजधानी हमेशा बादशाह के साथ चलती थी लेकिन औरंगज़ेब दूसरे मुग़ल बादशाहों से इस मामले में अलग थे कि एक बार दक्षिण जाने के बाद वो दोबारा दिल्ली कभी नहीं लौटे.”
उनके जाने के बाद दिल्ली उजाड़-वीरान हो गई, लाल क़िले की दीवारों पर धूल की मोटी परत जम गई.
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बुढ़ापे में अकेलेपन के शिकार
औरंगज़ेब ने अपनी ज़िंदगी के तीन अंतिम दशक दक्षिण भारत में बिताए और उन्होंने ज़्यादातर लड़ाइयों और घेराबंदियों का ख़ुद नेतृत्व किया.
औरंगज़ेब की सेना के एक हिंदू सिपाही भीमसेन सक्सेना ने फ़ारसी में अपनी आत्मकथा ‘तारीख़-ए-दिलकुशा’ में लिखा, “मैंने इस दुनिया के लोगों को बहुत लालची पाया है. इस हद तक कि औरंगज़ेब आलमगीर जैसा बादशाह जिसके पास किसी चीज़ की कमी नहीं है, क़िलों को जीतने के लिए लालायित था. कुछ पत्थरों पर अधिकार जमाने की उसकी चाहत इतनी बड़ी थी कि वो इसके लिए ख़ुद भागदौड़ कर रहा था.”
औरंगज़ेब के शासन का आख़िरी चरण उनके लिए ख़ुशनुमा नहीं था. उनको लग गया था कि उनकी भारत पर मज़बूती से शासन करने की इच्छा धूल में मिल गई थी.
इतिहासकार जदुनाथ सरकार अपनी किताब ‘द शॉर्ट हिस्ट्री ऑफ़ औरंगज़ेब’ में लिखते हैं, “औरंगज़ेब अपने बुढ़ापे में अकेलेपन के शिकार हो गए थे. एक-एक करके उनके सभी नज़दीकी साथी इस दुनिया से चल बसे थे. उनकी जवानी के सिर्फ़ एक साथी उनके वज़ीर असद ख़ाँ ही जीवित थे. जब वो अपने दरबार में नज़र दौड़ाते थे तो उन्हें हर तरफ़ डरपोक, जलनख़ोर और चापलूस युवा दरबारी दिखाई देते थे.”
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पुत्रों में प्रतिभा का अभाव
औरंगज़ेब की मृत्यु के समय उनके तीन पुत्र जीवित थे. इससे पहले उनके दो पुत्रों की मृत्यु हो चुकी थी. इनमें से किसी में भी भारत का बादशाह बनने का न तो बूता था और न ही क्षमता.
18वीं सदी के शुरू में लिखे एक पत्र में औरंगज़ेब ने अपने दूसरे बेटे मुअज़्ज़म को कंदहार न जीत पाने के लिए आड़े हाथों लिया था. औरंगज़ेब का यह पत्र ‘रूकायते आलमगीरी’ में संकलित है, इसमें उन्होंने लिखा था, ‘एक नालायक बेटे से बेहतर है एक बेटी होना.’
उन्होंने अपने पत्र के अंत में अपने बेटे को लताड़ते हुए लिखा था, “तुम इस दुनिया में अपने प्रतिद्वंदियों और ख़ुदा को किस तरह अपना मुँह दिखाओगे?”
औरंगज़ेब को इस बात का अंदाज़ा नहीं था कि उनके बेटों में उनका वारिस बनने की क्षमता के न होने के लिए वो ख़ुद ज़िम्मेदार थे.
इतिहासकार मूनिस फ़ारूकी ने अपनी किताब ‘द प्रिंसेज़ ऑफ़ द मुग़ल एम्पायर’ में लिखा है कि औरंगज़ेब ने शहज़ादों की निजी ज़िंदगी में दख़ल देकर उनकी स्वायत्तता को कमज़ोर किया था.
ऑड्री ट्रुश्के लिखती हैं, “सन 1700 आते-आते औरंगज़ेब अपने पोतों को अपने बेटों पर तरजीह देने लगे थे. इससे उनकी स्थिति और कमज़ोर हुई थी. औरंगज़ेब कभी-कभी तो अपने दरबारियों को अपने बेटों से ज़्यादा महत्व देते थे. इसका सबसे बड़ा उदाहरण था जब उनके मुख्य वज़ीर असद ख़ाँ और सैनिक कमांडर ज़ुल्फ़िकार ख़ाँ ने उनके सबसे छोटे बेटे कामबख़्श को गिरफ़्तार किया था.”
कामबख़्श का कुसूर ये था कि उन्होंने औरंगज़ेब की अनुमति के बिना मराठा राजा राजाराम से संपर्क स्थापित करने की कोशिश की थी. राजाराम शिवाजी के बेटे और संभाजी के सौतेले भाई थे.
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सबसे नज़दीकी लोगों का निधन
बुढ़ापा हावी हो रहा था और औरंगज़ेब की निजी ज़िंदगी अंधकारमय होती जा रही थी.
उनकी बहू जहानज़ेब बानो का मार्च, 1705 में गुजरात में निधन हो गया था. उनके विद्रोही बेटे अकबर-II की भी सन 1704 में ईरान में मौत हो गई थी.
इससे पहले सन 1702 में उनकी कवयित्री बेटी ज़ेब-उन-निसां भी चल बसी थीं. इसके बाद औरंगज़ेब के भाई बहनों में अकेली ज़िंदा बची गौहर-आरा की मौत हो गई.
औरंगज़ेब को इसका बहुत सदमा लगा. उन्होंने कहा, ‘शाहजहाँ के बच्चों में सिर्फ़ वो और मैं ही जीवित बचे थे.’
औरंगज़ेब के दुखों का यहीं अंत नहीं हुआ. सन 1706 में ही उनकी बेटी मेहर-उन-निसां और दामाद इज़ीद बख़्श की भी दिल्ली में मृत्यु हो गई.
औरंगज़ेब की मृत्यु से कुछ पहले उनके पोते बुलंद अख़्तर ने भी इस दुनिया को अलविदा कह दिया. उनके दो और पोतों की मौत हुई लेकिन उनके दरबारियों ने ये ख़बर ये सोचकर उन्हें नहीं दी कि इससे औरंगज़ेब को बहुत धक्का पहुंचेगा.
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सूखा और प्लेग
इसके अलावा दक्षिण में उस दौरान पड़े सूखे ने भी औरंगज़ेब की मुसीबतें बढ़ा दी थीं.
औरंगज़ेब के ज़माने में भारत आए इटालियन यात्री निकोलाव मनुची ने अपनी किताब ‘स्टोरिया दो मोगोर’ में लिखा, “दक्षिण में 1702 से 1704 के बीच बिल्कुल बारिश नहीं हुई. ऊपर से प्लेग की महामारी भी फैल गई. दो सालों में करीब 20 लाख लोगों की मौत हो गई. भुखमरी से परेशान लोग एक चौथाई रुपये के बदले अपने बच्चे तक बेचने के लिए तैयार हो गए. लेकिन उनका भी कोई खरीदार नहीं था.”
“आम लोगों को मरने के बाद मवेशियों की तरह दफ़नाया जाता. दफ़नाने से पहले ये देखने के लिए उनके कपड़ों की तलाशी ली जाती कि उनमें कुछ पैसे तो नहीं हैं. फिर उनके पैरों में रस्सी बाँध कर लाश को खींचा जाता और किसी भी सामने पड़ने वाले गड्ढे में दफ़ना दिया जाता.”
मनुची ने लिखा, “कई बार उससे फैली दुर्गंध से मुझे उल्टी आती. चारों तरफ़ इतनी मक्खियाँ होतीं कि खाना खाना भी नामुमकिन हो जाता.”
मनुची के शब्दों में, “वो अपने पीछे पेड़ और फसल-रहित खेत छोड़ गए. उनकी जगह आदमियों और मवेशियों की हड्डियों ने ले ली. सारे इलाके की आबादी इतनी कम हो गई कि तीन या चार दिन के सफ़र में कहीं भी आग या रोशनी जलती नहीं दिखाई देती थी.”
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उदयपुरी अंत तक औरंगज़ेब के साथ रहीं
अपने आख़िरी दिनों में औरंगज़ेब को अपने सबसे छोटे बेटे कामबख़्श की माँ उदयपुरी का सानिध्य बहुत पसंद था.
अपनी मृत्युशैया से कामबख़्श को लिखे पत्र में उन्होंने लिखा था कि उनकी बीमारी में उदयपुरी ने उनका साथ नहीं छोड़ा है, मत्यु में भी वो उनके साथ जाएंगी.
और हुआ भी यही. औरंगज़ेब की मृत्यु के कुछ महीनों के अंदर उदयपुरी ने भी इस दुनिया को अलविदा कह दिया.
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उत्तर में विद्रोह के स्वर
आख़िर में औरंगज़ेब ने अहमदनगर को अपना पड़ाव बनाया.
स्टेनली लेन-पूल ने अपनी किताब ‘औरंगज़ेब एंड द डिके ऑफ़ द मुग़ल एम्पायर’ में लिखा, “औरंगज़ेब की लंबी अनुपस्थिति ने उत्तर में अव्यवस्था फैला दी. राजपूत खुले विद्रोह पर उतर आए, आगरा के पास जाट अपना सिर उठाने लगे और मुल्तान के आसपास सिख भी मुग़ल साम्राज्य को चुनौती देने लगे. मुग़ल सेना अपने-आप को हतोत्साहित महसूस करने लगी. मराठों में भी मुग़ल सेना पर छिप-छिप कर वार करने की हिम्मत आ गई.”
औरंगज़ेब ने अपने सभी बेटों को इस डर से दूर भेज दिया कि कहीं वो उनका वही हश्र न करें जो उन्होंने अपने पिता शाहजहाँ का किया था.
एक और इतिहासकार अब्राहम इराली ने अपनी किताब ‘द मुग़ल थ्रोन द सागा ऑफ़ इंडियाज़ ग्रेट एम्परर्स’ में लिखा, “औरंगज़ेब के शासन में क्षेत्रीय विस्तार ने मुग़ल शक्ति को बढ़ाने के बजाए कमज़ोर कर दिया. उनके शासन में साम्राज्य का फैलाव इतना हो गया कि उस पर शासन करना असंभव हो गया. साम्राज्य अपने ही बोझ के तले दबने लगा. यहाँ तक कि औरंगज़ेब ने ख़ुद कहा, अज़मा-स्त हमाह फ़साद-ए-बाक़ी (यानी मेरे बाद अराजकता).”
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औरंगज़ेब की बीमारी
इस सबके अलावा औरंगज़ेब के सामने सबसे बड़ा मसला था उनके उत्तराधिकारी का.
मनुची ने लिखा, “गद्दी के दावेदारों में बादशाह के बेटे थे जो ख़ुद बुज़ुर्ग हो चले थे. फिर उसके बाद उसके पोतों का नंबर आता था जिनकी भी दाढ़ी सफ़ेद हो चली थी और उन्होंने 45 की उम्र पार कर ली थी. दावेदारों में औरंगज़ेब के परपोते भी थे जिनकी उम्र 25 या 27 साल रही होगी. इनमें से सिर्फ़ एक ही औरंगज़ेब का उत्तराधिकारी हो सकता था. सत्ता के संघर्ष में बाकी लोगों को या तो अपने हाथ-पैर कटवाने होते या अपनी ज़िंदगी से हाथ धोना पड़ता.”
सन 1705 में औरंगज़ेब ने मराठा किले वागिनजेरा पर जीत हासिल करने के बाद कृष्णा नदी के पास एक गाँव में अपना शिविर लगाया ताकि उनके सैनिकों को कुछ आराम मिल सके.
यहीं पर औरंगज़ेब बीमार पड़ गए. उसी साल अक्तूबर में दिल्ली जाने के इरादे से वो अहमदनगर की तरफ़ बढ़े लेकिन ये उनका आख़िरी पड़ाव साबित हुआ.
14 जनवरी, 1707 को 89 वर्षीय बादशाह एक बार फिर बीमार हो गए. कुछ दिनों में उनकी तबीयत संभल गई और वो फिर से अपना दरबार लगाने लगा. लेकिन इस बार उन्हें अंदाज़ा हो गया कि अब उनके पास बहुत अधिक समय नहीं बचा है. उनके बेटे आज़म की बढ़ती अधीरता उन्हें परेशान कर रही थी.
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बेटों को लिखी चिट्ठी
जदुनाथ सरकार लिखते हैं, “चार दिन बाद उसने आज़म को मालवा का गवर्नर बनाकर भेज दिया. लेकिन चालाक शहज़ादे ने ये जानते हुए कि उसके पिता का अंत निकट है जाने में बहुत जल्दबाज़ी नहीं दिखाई और कई जगहों पर रुकता हुआ आगे बढ़ा. अपने बेटे को भेजने के चार दिन बाद बादशाह को तेज़ बुख़ार चढ़ा लेकिन उसके बावजूद वो ज़िद करके दरबार में आए और उन्होंने उस हालत में भी रोज़ पाँचों वक्त की नमाज़ पढ़ी.”
अपने आख़िरी समय में उन्होंने अपने बेटों को दो पत्र लिखे, जिसमें उन्होंने लिखा, “मैं चाहता हूँ कि तुम दोनों में सत्ता के लिए लड़ाई न हो. लेकिन फिर भी मैं देख पा रहा हूँ कि मेरे जाने के बाद काफ़ी ख़ून-ख़राबा होगा. मैं ईश्वर से प्रार्थना करता हूँ कि वो तुममें अपनी प्रजा के लिए काम करने की इच्छा पैदा करे और शासन करने की क्षमता पैदा करे.”
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3 मार्च, 1707 को औरंगज़ेब अपने शयनकक्ष से बाहर निकले.
जदुनाथ सरकार लिखते हैं, “औरंगज़ेब ने सुबह की नमाज़ पढ़ी और अपनी तसबीह के दाने गिनने लगे. धीरे-धीरे उन पर बेहोशी छाने लगी और उनको साँस लेना दूभर होने लगा. लेकिन शरीर कमज़ोर होने के बावजूद उनकी उँगलियों से तसबीह के दाने नहीं छूटे. उनकी दिली इच्छा थी कि जुमे का दिन उनकी ज़िंदगी का आख़िरी दिन हो. आख़िर में उनकी ये इच्छा भी पूरी हुई.”
मरने से पहले औरंगज़ेब ने वसीयत की थी कि उनके शव को नज़दीक की किसी जगह पर बिना किसी ताबूत के दफ़नाया जाए.
औरंगज़ेब की मौत के दो दिन बाद उनका बेटा आज़म वहाँ पहुंचा. शोक मनाने और अपनी बहन ज़ीनत-उन-निसां बेगम को दिलासा देने के बाद वो अपने पिता के पार्थिव शरीर को थोड़ी दूर लेकर गये.
उसके बाद औरंगज़ेब के शव को दौलताबाद के पास ख़ुल्दाबाद में सूफ़ी संत शेख़ ज़ैन-उद-दीन की क़ब्र के बग़ल में दफ़नाया गया.
औरंगज़ेब 89 वर्ष की आयु तक जीवित रहे, जदुनाथ सरकार ने लिखा, “औरंगज़ेब की याददाश्त ग़ज़ब की थी. वो एक बार किसी का चेहरा देखने के बाद कभी भूलते नहीं थे. यही नहीं उसको लोगों का कहा गया एक-एक शब्द याद रहता था. अंतिम समय में उनको एक कान से कुछ कम सुनाई देने लगा था और उसके दाहिने पैर में भी कुछ दिक्कत हो गई थी जिसकी वजह से उसकी चाल में थोड़ी लड़खड़ाहट आ गई थी.”
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औरंगज़ेब के बेटों में जंग
हालांकि औरंगज़ेब ने शाह आलम यानी मुअज़्ज़म को अपना उत्तराधिकारी बनाया था जो उस समय पंजाब का गवर्नर था लेकिन आज़म शाह औरंगज़ेब की मौत के तुरंत बाद वहाँ पहुंच गया, उसने अपने-आप को बादशाह घोषित कर दिया.
उसने फिर आगरा कूच किया ताकि उसकी बादशाहत को विधिवत मान्यता मिल सके.
मनुची लिखते हैं, “उधर शाह आलम ने भी अपने पिता के निधन का समाचार सुन आगरा की तरफ़ कूच किया. वो अपने भाई आज़म से पहले आगरा पहुंच गया जहाँ के लोगों ने उसका ज़ोरदार स्वागत किया. जाजऊ में दोनों भाइयों की सेनाओं के बीच भिड़ंत हुई. इसी जगह पर सालों पहले औरंगज़ेब और उसके भाई दारा शिकोह के बीच युद्ध हुआ था. इस लड़ाई में शाह आलम की जीत हुई और अगले दिन 20 जून को उसने अपने पिता की गद्दी सँभाली.”
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मुग़ल साम्राज्य का पतन
हारे हुए आज़म शाह ने अपने भाई शाह आलम के हाथ आने से पहले एक कटार से आत्महत्या कर ली.
शाह आलम की भी औरंगज़ेब की मौत के पाँच साल बाद सन 1712 में मौत हो गई.
सन 1712 से 1719 के सात सालों के बीच एक के बाद एक चार मुग़ल बादशाह भारत की गद्दी पर बैठे, जबकि पिछले 150 सालों में सिर्फ़ 4 मुग़ल बादशाहों ने भारत पर राज किया था.
धीरे-धीरे मुग़ल वंश का पुराना रुतबा जाता रहा.
जदुनाथ सरकार लिखते हैं, “अपनी तमाम उपलब्धियों के बावजूद औरंगज़ेब राजनीतिक रूप से नाकाम बादशाह था. उसके बाद मुग़ल साम्राज्य के पतन का कारण सिर्फ़ उसकी निजी शख़्सियत नहीं थी. ये कहना भी शायद उचित नहीं है कि सिर्फ़ उसके कारण मुग़लों का पतन हुआ लेकिन ये भी सही है कि उसने उस पतन को रोकने के लिए कुछ भी नहीं किया.”
1707 में औरंगज़ेब की मौत के बाद से मुगल साम्राज्य अपने पुराने दौर के सपनों में ही जीता रहा और तकरीबन 150 साल तक किसी तरह चलने के बाद 1857 में बहादुर शाह ज़फ़र के साथ उसका अंत हो गया.
बीबीसी के लिए कलेक्टिव न्यूज़रूम की ओर से प्रकाशित.