सऊदी अरब और क़तर में ही इतने शांति समझौते क्यों होते हैं?
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यूक्रेन और अमेरिका के अधिकारी मंगलवार को सऊदी अरब में मुलाक़ात करेंगे. ये बातचीत रूस-यूक्रेन के बीच युद्धविराम का रास्ता साफ़ कर सकती है.
इस बातचीत के लिए सऊदी अरब को ही क्यों चुना गया है?
सऊदी अरब के क्राउन प्रिंस मोहम्मद बिन सलमान के अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप और रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन दोनों से अच्छे संबंधों की इसमें अहम भूमिका है.
सऊदी अरब ने कहा है कि वो रूस और यूक्रेन के संघर्ष में मध्यस्थ के तौर पर सक्रिय भूमिका निभाएगा.
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सऊदी अरब के पड़ोस में मौजूद क़तर भी पिछले दो दशकों के दौरान दुनिया भर में मध्यस्थता करने वाले देश के तौर पर उभरा है.
इसराइल और हमास के बीच ग़ज़ा में युद्धविराम करवाने में भी इसकी अहम भूमिका निभाई है. इससे पहले भी क़तर ने कई शांति समझौते करवाए हैं.
आख़िर सऊदी अरब और क़तर को ही अंतरराष्ट्रीय शांति समझौते के लिए क्यों चुना जाता है. और क्या इसकी वजह से दोनों के बीच दुश्मनी भी पैदा हुई है.
सऊदी अरब की भूमिका
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सऊदी अरब ने हूती विद्रोहियों पर हवाई हमले और गोले दाग कर यमन के गृहयुद्ध में दखल दिया था.
दशकों तक अपना आक्रामक रुख़ बरकरार रखने के बाद सऊदी अरब ने अब शांति समझौता कराने की भूमिका अपनाई है.
2015 में सऊदी अरब ने यमन के गृहयुद्ध में वहां की मौजूदा सरकार का साथ दिया था. सरकार के ख़िलाफ़ लड़ रहे हूती विद्रोहियों पर उसने हवाई हमले किए थे और गोले दागे थे.
2017 में लेबनान सरकार ने सऊदी अरब पर आरोप लगाया था कि उसने उसके प्रधानमंत्री सैयद अल-हरीरी को हिरासत में लिया था. लेबनान ने कहा था कि सऊदी अरब उसके प्रधानमंत्री पर मुक़दमा चलाकर उन्हें इस्तीफा देने के लिए मजबूर करने की कोशिश की.
2018 में सऊदी सरकार के मुखर आलोचक पत्रकार जमाल ख़शोज्जी की इंस्ताबुल में सऊदी अरब के दूतावास में हत्या कर दी गई.
वॉशिंगटन स्थित मिडिल ईस्ट इंस्टीट्यूट के पॉल सलेम ने बीबीसी से कहा,” शुरुआत में मोहम्मद बिन सलमान की नेतृत्व शैली ने टकराव पैदा किया. हालांकि अब सऊदी अरब के नेतृत्व ने महसूस किया है कि वो टकराव बढ़ाने की तुलना में शांति के लिए मध्यस्थता कर बड़ी भूमिका निभा सकता है.”
मध्यपूर्व के मामलों के एक्सपर्ट और अमेरिकी थिंक टैंक वॉशिंगटन इंस्टीट्यूट से जुड़ी एलिज़ाबेथ डेंट का कहना है कि सऊदी अरब का मक़सद मध्यपूर्व में स्थिरता को बढ़ावा देना है. यही वजह है कि वो शांति समझौते में मध्यस्थता कर रहा है.
डेंट ने बीबीसी को बताया, ”दरअसल ये उसकी सोची-समझी रणनीति का हिस्सा है. सऊदी अरब अब तेल निर्यात पर अपनी निर्भरता ख़त्म करना चाहता है. वो चाहता है कि इकोनॉमी के नए सेक्टर विकसित किए जाएं. इसके लिए वो विदेशी निवेशकों को आकर्षित करना चाहता है. मध्यस्थता की भूमिका निभाने के पीछे यही रणनीति है.”
समझौते कराने में सऊदी अरब को कितनी सफलता?
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सऊदी अरब पिछले कई दशकों से शांति समझौता करवाता रहा है.
साल 1989 में इसने लेबनान में लड़ रहे संगठनों के बीच समझौता करवाया था. इस मध्यस्थता ने ताएफ़ समझौते का रास्ता साफ किया जिसकी वजह से वहां 1990 में 15 साल पुराना गृहयुद्ध ख़त्म हो गया.
साल 2007 में सऊदी अरब ने मक्का समझौता करवाया था. इसने फ़लस्तीनी गुट हमास और फ़तह के बीच दुश्मनी ख़त्म कराई.
अब एक बार फिर प्रिंस मोहम्मद बिन सलमान के नेतृत्व में सऊदी अरब ने मध्यस्थता की भूमिका अपनाई है.
सऊदी अरब 2022 से ही यमन में शांति कायम करने की कोशिश में है.
सऊदी अरब हूती विद्रोहियों से कई दौर की बातचीत की है ताकि वहां गृहयुद्ध ख़त्म हो सके.
सूडान की सेना और विद्रोही गुट ‘रैपिड सपोर्ट फोर्सेज’ के बीच सुलह कराने के लिए सऊदी अरब ने दोनों पक्षों के साथ कई दौर की बात की है.
सऊदी अरब की मध्यस्थता में ही 2022 में रूस और यूक्रेन के बीच 250 से अधिक युद्धबंदियों की अदला-बदली का समझौता हुआ था.
शांति समझौते में क़तर की भूमिका
इस साल जनवरी में इसराइल और हमास के बीच जो युद्धविराम हुआ था उसमें मिस्र और अमेरिका के साथ क़तर की भी अहम भूमिका रही है.
साल 2020 में क़तर ने तालिबान और अमेरिका के बीच समझौते में अहम भूमिका निभाई थी.
इस समझौते के बाद ही वहां अमेरिका और तालिबान के बीच 18 साल पुरानी जंग ख़त्म हुई थी.
इसके बाद अमेरिका ने अपने सैनिक वापस बुला लिए थे और अफ़ग़ानिस्तान पर तालिबान का कब्जा हो गया था.
साल 2010 में इसने यमन में हूती विद्रोहियों और यमन सरकार के बीच समझौता करवाया था. हालांकि ये समझौता बाद में टूट गया था.
क़तर ने अफ़्रीका में भी कई शांति समझौते कराए.
2022 में इसने चाड की सरकार और कई विपक्षी गुटों के बीच समझौता कराया था.
2010 में क़तर ने सूडान सरकार और दारफु़र में सक्रिय हथियारबंद गुटों के बीच शांति समझौता कराया था.
2008 में क़तर ने लेबनान में लड़ रहे विद्रोही गुटों के बीच समझौता कराया था. ये समझौता ऐसे समय में कराया गया था जब ये देश गृहयुद्ध के कगार पर खड़ा था.
क़तर शांति समझौते क्यों कराना चाहता है?
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1995 में में हमाद बिन खलीफ़ा अल-थानी क़तर के शासक बने. इसके साथ ही क़तर ने शांति समझौते में अहम भूमिका निभानी शुरू की. अल-थानी 2013 तक सत्ता में रहे.
मध्यस्थता की भूमिका निभाने की पीछे क़तर का एक अहम मकसद था.
क़तर का खाड़ी में बड़ा गैस रिजर्व है. इन्हें नॉर्थ होम और साउथ पार्स फील्ड कहा जाता है. इनकी खोज 1990 में हुई थी.
लंदन में रॉयल यूनाइटेड सर्विसेज इंस्टीट्यूट के डॉ. एचए हेलेयर कहते हैं कि चूंकि ये गैस रिजर्व क़तर और ईरान दोनों के जल क्षेत्रों में फैला हुआ है इसलिए ईरान के साथ सहयोग करना उसकी मजबूरी थी.
ये भी हक़ीक़त है कि ईरान की उन दिनों सऊदी अरब से दुश्मनी थी.
डॉ. हेलेयर कहते हैं कि जब क़तर ने अपनी गैस फील्ड की खोज की तो इसे लगा कि इसके दोहन के लिए उसे अपना रास्ता तलाशना होगा. लिहाजा उसने मध्यस्थ बनने का रास्ता चुना.
वो कहते हैं, ”क़तर को लगा कि अगर वो अलग-अलग देशों के बीच शांति समझौता कराता है तो वो कई देशों के साथ अपना नेटवर्क बेहतर बना सकता सकता है. इससे उसके प्रति समर्थन बढ़ सकता है.”
क़तर ने 2004 में जो संविधान अपनाया है, उसमें मध्यस्थता की भूमिका निहित है.
डॉ. सलेम कहते हैं, ”क़तर ने अंतरराष्ट्रीय मुद्दों में मध्यस्थ की भूमिका को अपना नेशनल ब्रांड बना लिया है. उसने खुद को ऐसे देश को तौर पर पेश किया है, जिसका इस्तेमाल दूसरे देश भी समझौते के लिए कर सकते हैं.”
मध्यस्थ देशों के तौर पर सऊदी अरब और क़तर में मतभेद
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क़तर को कई देश इसलिए मध्यस्थता के लिए चुनते हैं क्योंकि वो उन संगठनों से भी संबंध रखता है जिनके साथ सऊदी अरब और अरब दुनिया के दूसरे देश बात नहीं करना चाहते.
डॉ. सलेम कहते हैं, ”सऊदी अरब हमास, मुस्लिम ब्रदरहुड और हमास जैसे इस्लामी समूहों के ख़िलाफ़ है. लेकिन क़तर उनके प्रति वैसा दुश्मनी का भाव नहीं रखता.”
वो कहते हैं कि तालिबान के साथ अपने संबंधों की वजह से क़तर इसके और अमेरिका के बीच पुल बना हुआ है. क़तर ने हमास और इसराइल, दोनों के साथ अपने संबंध रखे हैं. यही वजह है कि युद्धविराम करवाने में इसकी अहम भूमिका रही.
एलिज़ाबेथ डेंट कहती हैं, ”शांति समझौते करवाने का सऊदी अरब का रवैया रुढ़िवादी है जबकि क़तर गैर पारंपरिक रुख़ अपनाता है.”
हालांकि मुस्लिम ब्रदरहुड जैसे संगठनों को समर्थन देने की वजह से सऊदी अरब क़तर से नाराज है. सऊदी अरब मुस्लिम ब्रदरहुड को अपनी सत्ता के लिए ख़तरा मानता है.
उन्होंने कहा, ”जब 2010 और 2011 में कई अरब देशों की सरकारों के ख़िलाफ़ अरब स्प्रिंग जैसे जन विद्रोह हुए थे तब क़तर ने सीरिया और लीबिया जैसे देशों में विद्रोहियों का खुलकर समर्थन किया था. इसने क़तर का रुख़ साफ कर दिया था कि वो क्या चाहता है.”
इसने 2017 के ‘खाड़ी विवाद’ को जन्म दिया. इसकी वजह से सऊदी अरब और मध्यपूर्व के देशों ने क़तर से अपने संबंध तोड़ लिए.
डेंट कहती हैं, ”इस टकराव की वजह से ही क़तर को समझौतों की कोशिशों से पहले अपने पड़ोसी देशों को रुख़ देकर सतर्क कदम उठाने पड़े. लिहाजा अतिवादी समूहों को समझौते की मेज पर लाने में उसे ज्यादा बड़ी सफलता हाथ नहीं लगी. लेकिन अब क़तर ज्यादा निष्पक्ष मध्यस्थ बन चुका है.”
वह कहते हैं, ”अब क़तर सऊदी अरब के साथ प्रतिस्पर्द्धा नहीं करना चाहता है और न ही सऊदी अरब क़तर के समझौता प्रयासों में दखल देता है. लेकिन अभी भी दुनिया में इतने संघर्ष हो रहे हैं, जो दुनिया के दोनों मध्यस्थों को व्यस्त रखने के लिए काफी हैं.”
बीबीसी के लिए कलेक्टिव न्यूज़रूम की ओर से प्रकाशित.