संसद का मॉनसून सत्र हंगामे में बीता

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Monsoon Session Of Parliament : जुलाई के अंतिम सप्ताह से अगस्त के तीसरे सप्ताह तक चला संसद का मॉनसून सत्र कम से कम दो कारणों से बेहद उथल-पुथल भरा रहा. एक तो सत्र के पहले दिन देर शाम उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने त्यागपत्र दे दिया. देश के संसदीय इतिहास में ऐसा कभी नहीं हुआ कि संसद का सत्र चल रहा हो और अचानक इस तरह उपराष्ट्रपति का इस्तीफा हो जाए. उपराष्ट्रपति ने इस्तीफे के पीछे अपने खराब स्वास्थ्य को कारण बताया, लेकिन उनके इस्तीफे के दूसरे कारण बताये गये. यह वही उपराष्ट्रपति थे, जिन पर विपक्ष महाभियोग ले आया था. हालांकि कहा यह गया कि उस घटना के बाद उपराष्ट्रपति के रवैये में बदलाव आया था.

मॉनसून सत्र में उथल-पुथल का दूसरा कारण संसद का सुचारु रूप से न चल पाना रहा, जबकि हाल के दौर में हमने संसद को बेहतर ढंग से चलते हुए देखा है. उम्मीद यह थी कि मॉनसून सत्र में दोनों सदनों में कई अहम मुद्दों पर गंभीर विचार-विमर्श होगा, लेकिन नतीजा निराशाजनक रहा. यह सत्र सत्ता पक्ष और विपक्ष के हंगामे की भेंट चढ़ गया. लोकसभा सचिवालय के अनुसार कुल 21 बैठकों वाले, एक महीने लंबे इस सत्र में 84 घंटे से अधिक का समय बर्बाद हुआ और सिर्फ 37 घंटे ही चर्चा हुई, जो तय अवधि का मात्र 31 प्रतिशत ही है, जबकि कुल 120 घंटे की निर्धारित कार्यसूची थी. यह 18वीं लोकसभा के इतिहास में व्यर्थ हुआ सबसे अधिक समय था.

प्रश्नकाल का हाल तो और भी खराब रहा. लोकसभा में 419 तारांकित प्रश्न थे, जिनमें से मात्र 55 का उत्तर दिया जा सका. दूसरी ओर, राज्यसभा में केवल 41 घंटे, 15 मिनट ही काम हो पाया, जो लक्ष्य का मात्र 38.88 प्रतिशत ही था. राज्यसभा के लिए चौंकाने वाली बात यह रही कि मॉनसून सत्र जिस दिन शुरू हुआ, उसी दिन सभापति जगदीप धनखड़ ने इस्तीफा दे दिया. लोकसभा में 14 विधेयक पेश हुए, जिनमें से 12 पारित किये गये. इनमें आयकर विधेयक, कराधान कानून (संशोधन) विधेयक, राष्ट्रीय खेल प्रशासन विधेयक और ऑनलाइन गेमिंग विनियमन विधेयक आदि हैं. संविधान के 130 वें संशोधन विधेयक को संयुक्त संसदीय समिति में भेजा गया है. लोकसभा में सबसे अधिक विवाद 20 अगस्त को तब हुआ, जब केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने यह विधेयक पेश किया, जिसमें प्रावधान है कि यदि प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री या मंत्री 30 दिन तक गंभीर आपराधिक आरोपों में जेल में रहते हैं, तो उन्हें पद से हटाया जा सकता है. इस विधेयक का विपक्ष ने तीखा विरोध किया.

विपक्ष डरा हुआ है कि इसके जरिये विपक्षी नेताओं की राजनीति खत्म करने की साजिश है. हालांकि बताया जाता है कि निशाने पर सिर्फ विपक्षी नेता ही नहीं हैं. उपराष्ट्रपति चुनाव से ठीक पहले यह संविधान संशोधन विधेयक पेश करके सत्ता पक्ष ने अपने उन गठबंधन सहयोगियों को भी अंकुश में रखने की कोशिश की हो तो आश्चर्य नहीं, जिनके जब-तब छिटकने की अफवाहें सामने आती हैं. इस विधेयक को संयुक्त संसदीय समिति में भेज दिया गया है. संविधान संशोधन विधेयक के पारित होने में असमंजस है, क्योंकि सत्ता पक्ष के पास दो-तिहाई बहुमत नहीं है. तो फिर सत्ता पक्ष ने इसे पेश ही क्यों किया, यह सवाल है. जो विधेयक पारित हुए, उन पर चर्चा नहीं हो सकी. हाल के वर्षों में बगैर चर्चा के विधेयकों को पारित करवा लेने की प्रवृत्ति ही बन गयी है.

इन सबके बावजूद मॉनसून सत्र में ऑपरेशन सिंदूर पर हुई विशेष चर्चा महत्वपूर्ण रही. इस पर 28 और 29 जुलाई को विशेष चर्चा हुई और मेरा मानना है कि वह चर्चा बहुत सार्थक रही. उस दौरान विपक्ष ने अगर महत्वपूर्ण मुद्दे उठाये, तो सत्ता पक्ष ने उनका सटीक जवाब दिया. प्रधानमंत्री ने लोकसभा में, तो गृह मंत्री ने राज्यसभा में इस चर्चा का जवाब दिया. यह हैरान करने वाला है कि विशेष चर्चा के दौरान संसद का जो माहौल था, वह बाद में बरकरार नहीं रह सका. ऐसे ही, 18 अगस्त को भारत के अंतरिक्ष कार्यक्रम की उपलब्धियों पर लोकसभा में विशेष चर्चा रखी गयी थी, लेकिन विपक्ष के हंगामे के चलते वह चर्चा नहीं हो पायी. बेहतर होता कि विपक्ष भी उस चर्चा में शामिल होता, क्योंकि अंतरिक्ष में शुभांशु शुक्ला की उपलब्धियां पूरे देश को गौरवान्वित करने वाली रहीं.

मॉनसून सत्र को नारेबाजी, सदन में तख्तियां लहराने, विधेयकों की प्रतियां फाड़ने तथा लगातार व्यवधान के लिए ही जाना जायेगा. बिहार में मतदाता सूची के विशेष गहन पुनरीक्षण (एसआइआर) को लेकर विपक्षी सदस्यों के लगातार हंगामे ने संसदीय कार्यवाही को लगभग ठप कर दिया. बिहार में विधानसभा चुनाव से ठीक पहले चुनाव आयोग द्वारा शुरू किये गये एसआइआर- यानी स्पेशल इंटेसिव रिवीजन के मामले में विपक्ष का आरोप था कि इस प्रक्रिया में मतदाताओं के अधिकारों से छेड़छाड़ की गयी है, मतदाता सूची में गड़बड़ियों की घटनाएं बढ़ रही हैं. विपक्ष इन्हीं मुद्दों को लेकर सदन में चर्चा के लिए आखिरी दिन तक अड़ा रहा.

विपक्ष हंगामा करने की बजाय नियम के तहत चलता, तो वह ज्यादा अच्छा होता. हालांकि सदन में व्यवस्था बनाये रखना सत्ता पक्ष की जिम्मेदारी है. कुछ दशक पहले तक संसदीय कार्यमंत्री विपक्षी नेताओं से अपने संपर्कों और उनके साथ बेहतर तालमेल के जरिये संसद को सुचारु रूप से चला लेते थे. आज वह बात नहीं रह गयी है. दरअसल सत्तापक्ष और विपक्ष के बीच विश्वास का संकट है, इसीलिए ऐसी स्थिति आयी है. संसद की एक दिन की कार्यवाही पर करीब नौ करोड़ रुपये खर्च होते हैं. इस हिसाब से मॉनसून सत्र में करीब 190 करोड़ रुपये खर्च हुए, जो देश की जनता की गाढ़ी कमाई का पैसा है.

सत्र के आखिरी मिनट में भी विपक्ष के सांसदों ने संसद में नारेबाजी की. यहां यह कहा जाना जरूरी है कि सड़क की राजनीति संसद की राजनीति से अलग है और दोनों को अलग-अलग ही रखना चाहिए. संसद के अंदर अगर सड़क की राजनीति की जाए, तो यह बहुत शोभनीय नहीं है, संसदीय परंपरा के अनुकूल तो खैर यह नहीं ही है. सत्र की समाप्ति के वक्त दोनों ही सदनों में यह स्वीकार किया गया कि बहुमूल्य समय नष्ट हुआ और जनता की अपेक्षाएं पूरी नहीं हुईं. लोकसभा के अध्यक्ष और राज्यसभा के उपसभापति ने सांसदों से आत्ममंथन करने की अपील की, क्योंकि इससे लोकतंत्र की सर्वोच्च संस्था की गरिमा तार-तार होती है.
(ये लेखिका के निजी विचार हैं.)

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