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Trilochan : अपनी मुक्ति कामना लेकर लड़ने वाली/ जनता के पैरों की आवाजों में मेरा/ हृदय धड़कता है.’ वर्ष 1917 में 20 अगस्त को अवध (अब उत्तर प्रदेश) के सुल्तानपुर जिले के चिरानी पट्टी गांव में जन्मे भूखे-दूखे जनसाधारण की पीड़ा, मानवीय प्रेम, सौंदर्य, आशा और प्रकाश के अनूठे कवि त्रिलोचन शास्त्री ने अपनी धड़कनों का इतना ही पता नहीं दिया है. ‘उस जनपद का कवि हूं’ शीर्षक सॉनेट में यह भी बता गये हैं- ‘उस जनपद का कवि हूं जो भूखा-दूखा है/ नंगा है, अनजान है, कला–नहीं जानता/ कैसी होती है क्या है, वह नहीं मानता…’
साहित्य की दुनिया जानती है कि सॉनेट विदेशों में भले तेरहवीं शताब्दी से ही कवियों का प्रिय काव्य रूप रहा हो, हिंदी में बीसवीं शताब्दी में आया. तब भी हिंदी के ज्यादातर कवियों ने उसको बहुत उत्साह से नहीं लिया. इकलौते त्रिलोचन ने कविता के पारंपरिक सांचों पर उसे तरजीह दी और अपने सृजन के केंद्र में रख भरपूर नयी जमीन तोड़ी. उनके इस नयी जमीन तोड़ने का हासिल यह है कि उनका जिक्र चल जाये, तो काव्यप्रेमी उनके उपर्युक्त सॉनेट को दोहराने और उसे उनकी लोकनिष्ठता व लोकबद्धता की मिसाल बताने लग जाते हैं. वे उनकी एक और कविता का जिक्र करते हैं- ‘चंपा काले-काले अच्छर नहीं चीन्हती…’ इस कविता की चंपा सुंदर नामक ग्वाले की अल्हड़ व नटखट बेटी है. वह अपने चौपाये चराती है, तो चंचलता बरतती ही है, उधम भी खूब करती है. लेकिन पढ़ने-लिखने में यह बताने पर भी रुचि नहीं ले पाती कि इससे ‘हारे-गाढ़े काम सरेगा’ और गांधी बाबा की इच्छा है कि ‘सब जन पढ़ना-लिखना सीखें.’ यह कविता त्रिलोचन के जनपद के काव्य प्रेमियों की संवेदनाओं व भावनाओं को इतनी तुष्ट करती है कि वे कहते हैं कि त्रिलोचन इसके अलावा कुछ न रचते तो भी उन्हें इतने ही प्रिय होते.
त्रिलोचन बचपन से विलक्षण थे. एक दिन उनके संस्कृत के गुरु ने उनकी विलक्षणता पहचानी, तो माता-पिता के उनको दिये नाम ‘वासुदेव सिंह’ के बदले ‘त्रिलोचन’ के रूप में उनका नया नामकरण कर दिया. बाद में त्रिलोचन ने शास्त्री की परीक्षा पास की, तो इस नये नाम में ‘शास्त्री’ जोड़ कर ‘त्रिलोचन शास्त्री’ हो गये. अपने गांव से उनका रिश्ता इतना आत्मीय था कि वे नागार्जुन व केदारनाथ अग्रवाल के साथ हिंदी की प्रगतिशील कविता धारा की त्रयी में गिने जाने और देशभर में घूमने लगे, तो भी उससे जुड़े रहे. अलबत्ता, अपनी एक कविता में वे अपने किसी कमजोर क्षण का जिक्र इस प्रकार करते हैं- ‘हारे-खीझे मन से मैंने कभी कहा था/ अगर जन्म लेने से मैं लाचार न होता/ मुझे चिरानी पट्टी से कुछ प्यार न होता.’ इधर-उधर से लौट कर वे जब भी गांव में अपने घर आते, मेहनतकश साधारण जनों के बीच ही उठते-बैठते.
कहते कि इससे उन्हें जीवन का ताप, ऊर्जा व ऊष्मा तो मिलती ही है, उनके भीतर अदम्य जिजीविषा, अपराजेय संघर्ष व अडिग आस्था की मन:स्थिति सृजित होती है और जीवन के बहुलरूप का बोध होता है. आलोचकों की मानें, तो इस बोध से जन्मी काव्यात्मक बहुलता और विविधता ने ही उन्हें विलक्षण कवि के रूप में प्रतिष्ठा दिलायी. ऐसी प्रतिष्ठा कि नामवर सिंह ने लिखा, ‘त्रिलोचन की कविताओं जैसी विविधता और बहुलता किसी अन्य कवि में नहीं है और उन्होंने जितनी कविताएं रची हैं, अकेले किसी एक अन्य कवि ने नहीं रचीं.’
त्रिलोचन का मानना था कि किसी भाषा की गहराई में उतरना हो तो उसके क्षेत्र के लोगों से मिलना और अशिक्षितों-अनपढ़ों व मेहनतकशों के बीच रहना चाहिए. वे स्वयं भी कुछ कम मेहनतकशी नहीं करते थे. इसके चलते वे अपने गांव में अपने जीते जी ही किंवदंती पुरुष बन गये थे. उनके बारे में प्रचलित था कि उन्होंने अकेले ही अपना कच्चा मकान बनाया व विशालकाय पेड़ काटा. वक्त पड़ा तो काशी में रिक्शा चलाकर गुजारा किया और बचपन में ही रेल की पटरी से गुजरते हुए पैदल दिल्ली चले गये. एक आलोचक के शब्दों में कहें, तो उन्होंने भोक्ता के रूप में किसान जीवन की स्वानुभूति हासिल की और दृष्टा के रूप में उससे सहानुभूति रखी.
फिर उसके अपराजेय संघर्ष से अपने जुड़ाव की घोषणा करते हुए लिखा- ‘मैं सबके साथ हूं/ अलग-अलग सबका हूं/ मैं सबका अपना हूं/ सब मेरे अपने हैं/ मुझे शब्द-शब्द में देखो मैं कहां हूं.’ इतना ही नहीं, एक कविता में उन्होंने पूछा- ‘अगर पीड़ा नहीं होती तो भी क्या मैं गाता/ यदि गाता तो क्या उसमें ऐसा स्वर आता?’ वर्ष 2007 में नौ दिसंबर को अंतिम सांस लेने से पहले जीवन की सांध्य बेला में उनका सबसे बड़ा दुख उन्हीं के शब्दों में यह था कि ‘मेरे मर जाने पर शब्दों से/ मेरा संबंध टूट जायेगा.’ शब्दों से उनका यह संबंध सिर्फ कविता का नहीं, शिक्षण, पत्रकारिता, संपादन और प्रूफरीडिंग आदि का भी था. कई नामचीन पत्र-पत्रिकाओं के साथ वे हिंदी, अंग्रेजी, उर्दू व फारसी आदि भाषाओं के कोशों के संपादन से भी जुड़े रहे थे.
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