कन्हैया कुमार पर बिहार कांग्रेस का दांव, महागठबंधन के लिए इसका क्या संकेत है?
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- Writer, सीटू तिवारी
- पदनाम, बीबीसी संवाददाता, पटना से
बीती 10 मार्च को कांग्रेस के पार्टी दफ़्तर सदाकत आश्रम में एनएसयूआई के राष्ट्रीय प्रभारी कन्हैया कुमार की प्रेस कॉन्फ्रेंस थी. अपने ‘वाकपटु स्वभाव’ से इतर कन्हैया कुमार बहुत कम और संभलकर बोले.
उन्होंने बिहार कांग्रेस की 16 मार्च से शुरू हो रही ‘नौकरी दो, पलायन रोको’ यात्रा के बारे में तो बताया लेकिन अपने सहयोगी दल राजद और तेजस्वी यादव पर बार-बार सवाल पूछे जाने पर भी चुप रहे.
राजद पर कन्हैया कुमार मौन साधे रहे लेकिन पटना के सदाकत आश्रम में हुई उनकी प्रेस कॉन्फ्रेंस ही सांकेतिक तौर पर बहुत कुछ कहती है.
28 सितंबर 2021 को दिल्ली में कांग्रेस पार्टी ज्वाइन करने के बाद कन्हैया ने सदाकत आश्रम में अब तक महज़ तीन प्रेस कॉन्फ्रेंस की हैं.
दरअसल चुनावी वर्ष में बिहार कांग्रेस ने कन्हैया की एंट्री करवा के अपने सहयोगी दल राजद और ख़ासतौर पर तेजस्वी यादव को असहज कर दिया है.
ये असहजता अभी ज़ाहिर तो नहीं हो रही, लेकिन बिहार में साल की शुरुआत से ही कांग्रेस का एक्टिव होना महागठबंधन की आंतरिक राजनीति और उसके समीकरणों में बदलाव का संकेत दे रहा है.
बिहार कांग्रेसः रेस वाले घोड़ों पर दांव!
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इस वक्त बिहार की राजनीति में अगर एनडीए गठबंधन में जेडीयू और मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की सेहत अहम सवाल बने हुए हैं तो महागठबंधन में कांग्रेस की ‘अतिरिक्त’ सक्रियता.
साल की शुरुआत में ही पार्टी नेता राहुल गांधी दो बार पटना आ चुके हैं. हालांकि वो पटना सामाजिक संगठनों के कार्यक्रम में हिस्सा लेने आए थे, लेकिन उनके बिहार आने से पार्टी में जोश बढ़ा है.
यही वजह है कि जब साल 2025 में 18 जनवरी को राहुल गांधी ‘संविधान सुरक्षा सम्मेलन’ में आए तो कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष अखिलेश प्रसाद सिंह ने कहा, “आप (राहुल) जिस तरह से दक्षिण भारत और यूपी को वक्त देते हैं, उस तरह से बिहार को दीजिए तो कांग्रेस को 90 से पहले की स्थिति में ला देंगे.”
इसके बाद कांग्रेस पार्टी में एक सीरिज़ ऑफ इवेंट्स दिखता है जिसका मक़सद ज़मीनी स्तर पर कांग्रेस को मज़बूत करना है.
पार्टी ने 14 फ़रवरी 2025 को बिहार में कांग्रेस का प्रभारी कृष्णा अल्लावरू को बनाया.
कृष्णा अल्लावरू युवा कांग्रेस के भी प्रभारी हैं और उन्होंने सदाकत आश्रम में अपनी पहली प्रेस कॉन्फ्रेंस में कहा था, “घोड़े दो तरह के होते हैं. शादी में जाने वाले और रेस वाले. कांग्रेस अब रेस वाले घोड़े पर दांव लगाएगी.”
फ़रवरी महीने में ही अखिल भारतीय महिला कांग्रेस की अध्यक्ष अलका लांबा भी पटना आई थीं.
यात्रा के पीछे की मंशा
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16 मार्च से पश्चिमी चंपारण स्थित भितिहरवा आश्रम से कांग्रेस ‘नौकरी दो, पलायन रोको’ यात्रा निकाल रही है. पार्टी ने कन्हैया कुमार को इस यात्रा का लीड चेहरा स्पष्ट तौर पर घोषित नहीं किया है. लेकिन कन्हैया इस यात्रा का अहम क़िरदार होंगे, इसमें कोई शक नहीं.
ये यात्रा 24 दिन की होगी जिसमें दो बार राहुल गांधी के आने की ख़बर है. गौरतलब है कि अगर नेता प्रतिपक्ष तेजस्वी यादव का एजेंडा देखें तो उसमें भी पलायन और नौकरी का मुद्दा अहम है.
ऐसे में अलग से यात्रा क्यों, इस सवाल पर कन्हैया कहते हैं, “इन मुद्दों पर जितनी यात्राएं निकाली जाएं उतना अच्छा है. बाकी ये चुनावी यात्रा नहीं बल्कि पद यात्रा है. राजद को लेकर लग रहे कयासों का कोई मतलब नहीं है.”
कन्हैया कुमार इस सवाल को अंडरप्ले कर रहे हैं लेकिन बिहार की पॉलिटिक्स को नज़दीक से देखने समझने वाले कन्हैया के प्रति तेजस्वी यादव की असहजता को स्वीकार करते हैं.
बेगूसराय से सीपीआई के टिकट पर लोकसभा चुनाव लड़ने के बाद कन्हैया ने कांग्रेस ज्वाइन की थी. लेकिन वो बिहार में बतौर कांग्रेसी नेता कभी एक्टिव नहीं हुए, बल्कि उनके साथ मंच शेयर करने में तेजस्वी की असहजता ख़बर बनती रही.
साल 2019 में बेगूसराय में कन्हैया ने चुनाव लड़ा तो राजद ने तनवीर हसन को भी मैदान में उतारा था. मई 2023 में पटना में आयोजित प्रज्ञापति सम्मेलन में कन्हैया के शामिल होने पर मुख्य अतिथि के तौर पर बुलाए गए तेजस्वी यादव ने इस कार्यक्रम से दूरी बना ली थी.
वरिष्ठ पत्रकार फ़ैज़ान अहमद कहते हैं, “बिहार में कांग्रेस अब ‘ओल्ड गार्ड्स’ की बजाए नौजवान चेहरा चाहती है और राजद के साए से भी बाहर निकलना चाहती है. कन्हैया का अब तक बिहार कांग्रेस ने इस्तेमाल ही नहीं किया है. राजद में कन्हैया को लेकर एक तरह का ‘क्लैश ऑफ इंटरेस्ट’ है, लेकिन कांग्रेस को अपनी स्वतंत्र छवि बनाने के लिए ये करना होगा.”
राजद का क्या है कहना
हालांकि कन्हैया के साथ किसी तरह के ‘क्लेश ऑफ इंटरेस्ट’ (हितों का टकराव) से राजद नेता इनकार करते हैं.
पार्टी प्रवक्ता चितरंजन गगन कहते हैं, “सभी पार्टियों को अपने जनाधार का विस्तार करने का अधिकार है. फिर अगर कांग्रेस मज़बूत होगी तो महागठबंधन मज़बूत होगा. इसमें किसी तरह का अंतर्विरोध नहीं है. कन्हैया को लेकर कोई असहजता नहीं है.”
बिहार कांग्रेस की नाव, मंडल राजनीति और 1990 में लालू प्रसाद यादव यानी राजद की सरकार बनने के बाद डगमगाई. 1990 से पहले बिहार में ज़्यादातर समय कांग्रेस ही सत्तासीन रही, लेकिन राजद के उभार के बाद पार्टी सिमटती गई.
आंकड़ों में देखें तो अविभाजित बिहार में विधानसभा में कुल 324 सीट थी. नौवीं विधानसभा यानी साल 1985 के विधानसभा चुनाव तक ही कांग्रेस की जीत का आंकड़ा तीन अंकों को छू पाया था. 1990 में पार्टी को सिर्फ 71 सीट मिली.
झारखंड अलग होने के बाद बिहार विधानसभा की सीट घटकर 243 हो गई. कांग्रेस ने फ़रवरी 2005 के चुनाव में 10, नवंबर 2005 में 09, साल 2010 के चुनाव में 04, 2015 के विधानसभा चुनाव में 27 और साल 2020 के विधानसभा चुनाव में 19 सीटें जीती थीं.
कांग्रेस का सबसे अच्छा स्ट्राइक रेट साल 2015 में रहा. उस वक्त अशोक चौधरी प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष थे और कांग्रेस, राजद और जेडीयू ने साथ मिलकर चुनाव लड़ा था.
अशोक चौधरी कांग्रेस छोड़कर जेडीयू में चले गए और हाल ही में उन्होंने कांग्रेस पर चुटकी लेते हुए कहा , “लालू यादव कांग्रेस को नेस्तोनाबूद करना चाहते हैं. जो सीट जीवन में कभी नहीं जीते वो सीट कांग्रेस को दे देते हैं.”
वहीं लोजपा (आर) प्रमुख चिराग पासवान ने भी पटना में कहा, “जिस तरह से महागठबंधन के घटक दलों में वर्चस्व की लड़ाई चल रही है, उसमें ये संभावना है कि कांग्रेस अलग होकर लड़ेगी. केन्द्रीय नेतृत्व को समझ आ गया है कि उसको अकेले लड़ने में फायदा है.”
कांग्रेस अकेले लड़ी तो क्या होगा?
साल 2020 के विधानसभा चुनाव में राजद ने कांग्रेस को 70 सीटें दी थीं. जिसमें पार्टी ने महज़ 19 सीटों पर जीत हासिल की थी. महागठबंधन की सरकार नहीं बन पाने की एक वजह कांग्रेस का परफ़ॉरमेंस माना गया था.
कांग्रेस नेता मानते हैं कि पार्टी के जनाधार के मुताबिक सीटें नहीं देने की वजह से ऐसा हुआ. अबकी बार केन्द्रीय कांग्रेस ने तीन कंपनियों को बिहार में विधानसभा वार सर्वे का काम दिया है जिन्होंने 100 सीटों पर पार्टी से काम करने को कहा है.
कांग्रेस के प्रवक्ता ज्ञान रंजन कहते हैं, “हम लोग 70 सीटों से कम पर नहीं मानेंगे और अबकी बार हमारी मनपसंद सीट होनी चाहिए, थोपी हुई सीट कांग्रेस नहीं लड़ेगी.”
लेकिन राजद सूत्र बताते है कि पार्टी कांग्रेस को 50 सीटें देगी और भाकपा (माले) की सीट 25 से 30 होगी. भाकपा (माले) ने साल 2020 में 19 सीट लड़ी थी और 12 पर जीत दर्ज की थी.
लोकसभा चुनाव में भी पार्टी ने आरा और काराकाट लोकसभा पर फ़तह हासिल की थी. भाकपा (माले) की सीटें बढ़ाने का एक फायदा ये भी है कि लेफ्ट पार्टियां सरकारों में शामिल नहीं होती.
कांग्रेस की सीटें कम होने और मनचाही सीट नहीं मिलने की स्थिति में पार्टी साल 2010 के विधानसभा चुनावों जैसे अकेले भी चुनाव लड़ सकती है, जिसमें पार्टी को महज़ 4 सीटें मिली थीं.
ऐसे में सवाल है कि इस स्थिति में क्या नुकसान या फायदा सिर्फ महागठबंधन का होगा? बीजेपी के कई नेता और जानकार ऐसा नहीं मानते.
तीन माह पहले बिहार बीजेपी के नेताओं की सूरजकुंड (हरियाणा) में बैठक हुई थी. इसमें शामिल एक बीजेपी नेता ने बीबीसी को बताया, “राष्ट्रीय संगठन महामंत्री बीएल संतोष के सामने ये बात उठी थी कि हमें कोशिश करनी होगी कि राजद और कांग्रेस साथ लड़ें. अगर कांग्रेस अलग लड़ेगी तो नुकसान पार्टी (बीजेपी) को होगा.”
दरअसल कांग्रेस के आधार वोट में सवर्ण वोटर शामिल हैं, जो बीजेपी का भी कोर वोटर है. ये वोटर राजद के साथ चुनाव लड़ने पर कांग्रेस से छिटकते हैं वहीं अकेले लड़ने पर गोलबंद भी होते हैं.
वरिष्ठ पत्रकार अरुण श्रीवास्तव भी कहते हैं, “कांग्रेस अगर अकेले लड़ी तो वो बीजेपी को नुकसान पहुंचाएगी और प्रशांत किशोर को न्यूट्रलाइज़ करेगी. लेकिन फिलहाल ऐसा लगता नहीं है कि कांग्रेस अकेले लड़ेगी. कांग्रेस लालू के साथ रहेगी लेकिन पहले जैसे खुद को डिक्टेट नहीं होने देगी. वहीं कन्हैया एक्टिव होंगे तो अपने लिए नया स्पेस क्रिएट करेंगे, अपर कास्ट वोटरों और दलितों को कुछ हद तक गोलबंद करेंगे.”
मुस्लिम वोटर क्या करेंगे?
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कांग्रेस का आधार वोट सवर्ण के साथ साथ दलित और मुसलमान रहे हैं. बिहार के जातिगत सर्वे के मुताबिक राज्य में 17.70 फ़ीसदी मुसलमान हैं.
मुसलमान के वोटिंग पैटर्न पर बात करते हुए पत्रकार फ़ैज़ान अहमद कहते हैं, “साल 2015 से मुसलमानों का जो वोटिंग पैटर्न दिख रहा है उसमें मुसलमान आक्रामक तरीके से उस कैंडीडेट को वोट कर रहे हैं जो बीजेपी को हरा सके. इसलिए आप देखें तो बीते चुनाव में एक भी मुस्लिम उम्मीदवार जेडीयू से भी नहीं जीता.”
साल 2020 के विधानसभा चुनाव में जेडीयू ने 11 मुस्लिम उम्मीदवारों को टिकट दिया था लेकिन एक भी जीत दर्ज नहीं कर सका. इस वक्त कैबिनेट में ज़मा ख़ान मुस्लिम प्रतिनिधित्व कर रहे हैं, लेकिन वो बसपा से जीतकर जेडीयू में शामिल हो गए थे.
महागठबंधन में शामिल विकासशील इंसान पार्टी प्रमुख मुकेश सहनी ने 60 सीटों पर चुनाव लड़ने का ऐलान किया है. पार्टी प्रमुख मुकेश सहनी का दावा है कि उनके पास आठ से दस प्रतिशत का वोट है. उन्होंने वाल्मिकीनगर में पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी में कहा है, “उनकी पार्टी टिकट मांगने वाली नहीं बल्कि बांटने वाली है.”
बिहार चुनाव में अभी तकरीबन सात महीने बाकी हैं. बिहार कांग्रेस प्रभारी कृष्णा अल्लावरू तीन बार बिहार दौरे पर आ चुके हैं.
लेकिन दूसरे कांग्रेस प्रभारियों से इतर उन्होंने राजद सुप्रीमो लालू प्रसाद यादव या किसी अन्य राजद नेता से मुलाकात नहीं की है.
कृष्णा अल्लावरू ने 31 मार्च तक प्रदेश के सभी बूथों पर बूथ लेवल एजेंट की नियुक्ति का टास्क दिया है.
लेकिन कृष्णा अल्लावरू जितनी तेज़ी में दिखते हैं, केन्द्रीय स्तर पर कांग्रेस की चाल उतनी ही धीमी है. इसका सबसे पुख्ता उदाहरण बीते आठ सालों में प्रदेश कांग्रेस कमेटी का गठन नहीं होना है.
संगठनात्मक स्तर पर इस तरह की ढीली ढाली व्यवस्था में बिहार कांग्रेस का रुख़ और प्रभाव क्या होगा, ये भविष्य ही बताएगा.
बीबीसी के लिए कलेक्टिव न्यूज़ रूम की ओर से प्रकाशित