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बिहार में कांग्रेस आख़िरी बार मार्च 1990 में सत्ता में थी और उसके बाद से प्रदेश की मुख्य विपक्षी पार्टी भी नहीं बन पाई.
पिछले कई दशकों से कांग्रेस बिहार में राष्ट्रीय जनता दल (आरजेडी) की जूनियर सहयोगी के तौर पर काम कर रही है. बिहार में कांग्रेस कई दशकों से लोकप्रिय नेतृत्व के संकट से भी जूझ रही है.
बुधवार को बिहार बंद की अगुआई करने कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष और लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष राहुल गांधी पटना पहुँचे थे.
राहुल गांधी बिहार विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष और आरजेडी नेता तेजस्वी यादव के साथ एक खुली गाड़ी में सवार होकर पटना की सड़कों पर विरोध-प्रदर्शन करने उतरे. इस गाड़ी पर बिहार में कांग्रेस विधायक दल के नेता शक़ील अहमद ख़ान, बिहार कांग्रेस यूनिट के पूर्व अध्यक्ष अखिलेश सिंह और मदन मोहन झा भी थे.
कन्हैया कुमार भी इस गाड़ी पर सवार होना चाहते थे लेकिन सुरक्षाकर्मियों ने उन्हें रोक दिया. कन्हैया कुमार भी कांग्रेस वर्किंग कमिटी के सदस्य हैं और कांग्रेस के स्टूडेंट्स विंग एनएसयूआई के प्रभारी हैं. कन्हैया को राहुल की गाड़ी पर नहीं चढ़ने देने का वीडियो क्लिप सोशल मीडिया पर वायरल हो रहा है.
कई लोग इसे अपमानित करने वाला बता रहे हैं तो कुछ लोगों का कहना है कि आरजेडी ने कन्हैया को रोक दिया. कन्हैया की तरह पूर्णिया से लोकसभा सांसद पप्पू यादव भी राहुल गांधी की गाड़ी पर सवार होना चाहते थे लेकिन उन्हें भी रोक दिया गया.
जन सुराज पार्टी के संस्थापक प्रशांत किशोर ने समाचार एजेंसी एएनआई से कहा कि कांग्रेस ने आरजेडी के दबाव में कन्हैया को राहुल के साथ नहीं आने दिया.
प्रशांत किशोर ने कहा, ”बिहार में कांग्रेस के जितने भी नेता हैं, उनमें कन्हैया कुमार सबसे प्रतिभाशाली नेताओं में से एक हैं. अगर बिहार में कांग्रेस कन्हैया का इस्तेमाल नहीं कर पा रही है तो जो बात हमलोग पहले से ही कहते आ रहे हैं कि कांग्रेस आरजेडी की पिछलग्गू पार्टी है, वो पूरी तरह से सच है. आरजेडी का नेतृत्व कन्हैया कुमार जैसे क़ाबिल नेताओं से डरता है. आरजेडी नेतृत्व ने ही कन्हैया को दूर रखने के लिए कहा होगा.”
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‘कन्हैया आमंत्रित नहीं थे’
ऐसे में सवाल उठ रहा है कि कन्हैया को राहुल की गाड़ी पर सवार होने से किसने और क्यों रोका? कन्हैया की तरह कांग्रेस विधायक दल के नेता शक़ील अहमद ख़ान भी जेएनयूएसयू के अध्यक्ष रहे हैं. बीबीसी हिंदी ने जब शक़ील अहमद ख़ान से पूछा कि कन्हैया को गाड़ी पर राहुल के साथ क्यों नहीं आने दिया गया?
शक़ील अहमद ख़ान कहते हैं, ”क्या कन्हैया उस लिस्ट में शामिल थे, जिन्हें राहुल जी के साथ गाड़ी पर सवार होना था? अगर वह उस लिस्ट में शामिल नहीं थे तो उन्हें नहीं आना चाहिए था. हम पहले से ही सहमति से नाम तय करते हैं और जिन्हें शामिल होना होता है, उन्हें बता दिया जाता है. इस पर कोई विवाद ही नहीं होना चाहिए था.”
जब शक़ील अहमद ख़ान से पूछा गया कि कई लोग कह रहे हैं कि आरजेडी के दबाव में कांग्रेस ने कन्हैया को राहुल और तेजस्वी की गाड़ी से दूर रखा?
शक़ील अहमद ख़ान कहते हैं, ”कौन क्या कह रहा है, इसका कोई मतलब नहीं है. जिनको शामिल होना था, उन्हें बता दिया गया था. बिहार में आरजेडी सबसे बड़ी पार्टी है, उसे किसी से कोई परेशानी क्यों होगी. हम गठबंधन में ज़रूर हैं लेकिन कांग्रेस अपना फ़ैसला ख़ुद करती है.”
पप्पू यादव को लेकर शक़ील अहमद ख़ान ने कहा, ”पप्पू यादव हमारे अलायंस पार्टनर नहीं हैं. ज़ाहिर है कि वह कांग्रेस में भी नहीं हैं. पप्पू यादव भी राहुल के साथ गाड़ी में सवार होना चाहते थे लेकिन उन्हें किस आधार पर हम लोग आमंत्रित करते? पप्पू न कांग्रेस में हैं और न ही गठबंधन के सहयोगी हैं.”
पप्पू यादव से भी आरजेडी के शीर्ष नेतृत्व की कड़वाहट रही है. 2024 के लोकसभा चुनाव में पूर्णिया से पप्पू यादव ने निर्दलीय उम्मीदवार के तौर पर आरजेडी को हराया था.
बीबीसी हिंदी से बातचीत में बिहार कांग्रेस के एक पूर्व अध्यक्ष से पूछा गया कि क्या कन्हैया को बताया नहीं गया था कि राहुल गांधी के साथ गाड़ी पर जिन लोगों को सवार होना है, उनमें उनका नाम नहीं है?
उन्होंने अपना नाम ज़ाहिर नहीं करने की शर्त पर बताया, ”शायद उन्हें बताया नहीं गया हो. लेकिन अखिलेश सिंह गाड़ी पर सवार थे तो कन्हैया भी रह सकते थे. राहुल के साथ कौन रहेगा और कौन नहीं इसकी लिस्ट स्टेट यूनिट तैयार करती है. अब कन्हैया का नाम क्यों नहीं था, ये मैं नहीं बता सकता. लेकिन उन्हें बुलाया नहीं गया था तो जाने से बचना चाहिए था.”
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क्या आरजेडी के दबाव में ऐसा हुआ?
क्या आरजेडी के दबाव में यह फ़ैसला लिया गया या कांग्रेस प्रदेश इकाई में भी कन्हैया को लेकर असहजता है? इस सवाल के जवाब में पूर्व कांग्रेस अध्यक्ष ने कहा, ”देखिए तेजस्वी यादव कन्हैया को लेकर बहुत सकारात्मक नहीं हैं. इसका कारण भी है. अगर तेजस्वी की सभा में कन्हैया रहेंगे तो महफ़िल लूट सकते हैं. इसमें कोई शक नहीं है कि कन्हैया तेजस्वी की तुलना में अच्छे वक्ता हैं. कन्हैया पढ़े-लिखे हैं और बीजेपी को ज़्यादा धारदार तरीक़े से जवाब देते हैं. मुझे नहीं लगता है कि तेजस्वी किसी ऐसी रैली में हिस्सा लेंगे, जिसमें वक्ता कन्हैया भी हों.”
राहुल गांधी के साथ गाड़ी पर कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष अखिलेश सिंह भी थे. उनसे पूछा कि कन्हैया को राहुल की गाड़ी पर चढ़ने से क्यों रोका गया? अखिलेश सिंह कहते हैं, ”ये सवाल तो आरजेडी से पूछना चाहिए क्योंकि उस कमिटी के अध्यक्ष तेजस्वी यादव ही हैं. कमिटी की बैठक हुई थी और उसी में तय किया गया था कि कौन आएगा और कौन नहीं. मैं उस मीटिंग में नहीं था लेकिन मुझे राहुल जी के साथ गाड़ी पर रहने के लिए कहा गया था. अगर मुझे नहीं कहा जाता तो मैं जाता ही नहीं. उसी तरह कन्हैया को आमंत्रित नहीं किया गया था तो नहीं जाना चाहिए था.”
अखिलेश सिंह राष्ट्रीय जनता दल में भी रहे हैं. जब उनसे पूछा गया कि क्या तेजस्वी कन्हैया कुमार को लेकर असहज रहते हैं? अखिलेश सिंह ने कहा, ”मुझे ऐसा नहीं लगता है. पप्पू यादव के मामले में ऐसा मैं कह सकता हूँ कि लालू परिवार में असहजता है. कन्हैया से असहजता क्यों रहेगी?”
क्या कन्हैया कुमार को बिहार की कांग्रेस यूनिट और आरजेडी दोनों ने स्वीकार नहीं किया है? टाटा इंस्टिट्यूट ऑफ सोशल साइंस में प्रोफ़ेसर रहे और बिहार की राजनीति पर गहरी नज़र रखने वाले पुष्पेंद्र कहते हैं कि कन्हैया को बिहार की राजनीति करनी है तो बिहार में पूरा समय देना होगा.
पुष्पेंद्र कहते हैं, ”कन्हैया को तय करना होगा कि उन्हें कांग्रेस में सुप्रिया श्रीनेत, पवन खेड़ा और जयराम रमेश बनना है कि रेवंत रेड्डी. अगर सुप्रिया श्रीनेत और पवन खेड़ा बनना है तो उनके लिए यह सफ़र बहुत आसान है. अगर मास लीडर बनना है तो उन्हें ज़मीन पर संघर्ष करना होगा न कि राहुल गांधी से क़रीबी होने का औरा लेकर अहंकार में रहना होगा. कांग्रेस की स्टेट यूनिट में वह तभी स्वीकार्य होंगे जब कांग्रेस की जड़ों को सींचने के लिए ज़मीन पर मेहनत करेंगे. आरजेडी भी उन्हें तभी स्वीकार करेगी, जब लगेगा कि कन्हैया सवर्ण जातियों के वोट गठबंधन के पक्ष में लामबंद कर सकते हैं.”
नेतृत्व का संकट
पुष्पेंद्र कहते हैं, ”मुझे अब नहीं लगता है कि तेजस्वी में कन्हैया को लेकर कोई असुरक्षा की भावना है. पहले रही होगी लेकिन अब तेजस्वी उन असुरक्षाओं से पार हो गए हैं. तेजस्वी ज़मीन पर संघर्ष कर रहे हैं लेकिन कन्हैया बिहार में रणदीप सूरजेवाला की तरह आते हैं. कन्हैया जातीय पहचान को हवा नहीं देते हैं लेकिन उन्हें सवर्णों वाली आभिजात्यता से बाहर आना होगा. मैंने उन्हें सीपीआई के ऑफिस में एक बार देखा था. उनका तेवर तब भी किसी भी स्तर पर सीपीआई वाला नहीं था.”
कन्हैया कुमार 2016 में जेएनयू में एक भाषण के बाद काफ़ी लोकप्रिय हुए थे. इस भाषण के बाद उनकी कही बातें लोग सुनने लगे थे. 2019 में कन्हैया अपने गृह ज़िला बेगूसराय से सीपीआई के लोकसभा उम्मीदवार बने लेकिन बीजेपी के गिरिराज सिंह से 4,22,217 मतों से हार गए थे.
इस हार के लगभग दो साल बाद कन्हैया सितंबर 2021 में कांग्रेस में शामिल हो गए और 2024 के लोकसभा चुनाव में वह उत्तर-पूर्वी दिल्ली से उम्मीदवार बने. लेकिन यहाँ भी उन्हें बीजेपी के मनोज तिवारी से 1,38,778 मतों से मात मिली.
पिछड़ी जातियों और दलितों की ज़्यादा आबादी के बावजूद 1947 से 1967 तक बिहार कांग्रेस में सवर्णों का वर्चस्व रहा है. कांग्रेस में वर्चस्व रहने का मतलब था कि सत्ता में वर्चस्व रहना.
इसकी वजह यह भी थी कि सवर्ण आर्थिक और शैक्षणिक रूप से मज़बूत थे. 1967 के आम चुनाव तक कांग्रेस के नेतृत्व में सवर्णों का प्रभाव बना रहा. हालांकि इसी दौर में सवर्ण नेतृत्व को अहसास हो गया था कि ग़ैर-सवर्णों को सत्ता में भागीदारी से लंबे समय तक रोका नहीं जा सकता है.
बीबीसी के लिए कलेक्टिव न्यूज़रूम की ओर से प्रकाशित
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