Emergency : इमरजेंसी ,आपातकाल , काला दिन भारत के लोकतंत्र का काला अध्याय अथवा संविधान हत्या दिवस जैसे सारे शब्द एक ही हैं । यह सभी शब्द भारत में लगाई गई इमरजेंसी की याद दिलाते हैं । भारत में इमरजेंसी लगाई जाने के विरोध में बुधवार (25 जून ) को संविधान हत्या दिवस मनाया गया।
इमरजेंसी क्या थी ? इमरजेंसी में क्या-क्या हुआ था ? भारत में इमरजेंसी कितनी जरूरी या गैर जरूरी थी ? इस प्रकार के सारे सवालों का जवाब तलाशने के लिए हमने पांच खास किताबें पढ़ी है । आपको भी इन खास किताबों के विषय में बता देते हैं ।
लोकतंत्र की रक्षा कौन करेगा? लेखक – एम.जी. देवसहायम
इमरजेंसी पर लिखी गई पुस्तक लोकतंत्र की रक्षा कौन करेगा ? हमें इसके बारे में काफी कुछ बताती है। यह किताब एम.जी. देवसहायम ने लिखी है, जो एक पूर्व IAS अधिकारी हैं और समाजसेवी जयप्रकाश नारायण के करीबी रहे हैं। उन्होंने 1975 में लगे आपातकाल की कड़ी आलोचना की है और आज के राजनीतिक हालात से उसकी तुलना की है। लेखक खुद उस समय जेपी के जेल में रहने के दौरान उनके करीबी सहयोगी थे। इसलिए वह उस दौर के विरोध आंदोलन के बारे में अंदरूनी और कम जानी-पहचानी बातें बताते हैं।
इस किताब में एक बड़ा सवाल उठाया गया है क्या हमारे लोकतंत्र की रक्षा राजनेता करते हैं, सरकारी संस्थाएं करती हैं या आम नागरिक? देवसहायम ने अपने व्यक्तिगत अनुभव और राजनीतिक समझ को मिलाकर यह दिखाया है कि लोकतंत्र कितना नाजुक हो सकता है और उसकी रक्षा कितनी ज़रूरी है। यह किताब उन लोगों के लिए खास है जो जानना चाहते हैं कि हमारे देश में लोकतंत्र कैसे काम करता है और उसे खतरे से कैसे बचाया जा सकता है।
एक व्यक्तिगत इतिहास लेखिका – कूमी कपूर
आपातकाल पर लिखी गई किताब इंदिरा गाँधी और वे वर्ष जिन्होंने भारत को बदल दिया काफी रोचक है। 1975 में लगाई गई इमरजेंसी पर लिखी गई पुस्तक एक व्यक्ति इतिहास को जानी-मानी पत्रकार कूमी कपूर ने लिखा है। उन्होंने इसमें 1975 के आपातकाल के दौर को अपने परिवार के अनुभवों के ज़रिए बताया है। उस समय उनके पति को बिना वजह जेल में डाल दिया गया, उनके देवर सुब्रमण्यम स्वामी को छिपकर रहना पड़ा, और कूमी कपूर खुद सरकारी निगरानी में रहीं।
किताब में उन्होंने बताया है कि आपातकाल में लोगों को जबरदस्ती नसबंदी कराई गई, झुग्गी-झोपड़ियां तोड़ी गईं, और अखबारों पर सेंसर लगाया गया यानी सरकार को जो पसंद नहीं था, वो छापने नहीं दिया गया। यह किताब हमें दिखाती है कि जब सरकार पूरी ताकत अपने हाथ में ले लेती है तो आम लोगों को कितनी मुश्किलों का सामना करना पड़ता है। यह भारतीय लोकतंत्र के सबसे अंधेरे समय की एक सच्ची और भावनात्मक कहानी है।
इंदिरा गांधी और वे वर्ष जिन्होंने भारत को बदल दिया लेखक – श्रीनाथ राघवन
इस किताब को इतिहासकार श्रीनाथ राघवन ने लिखा है। उन्होंने इसमें इंदिरा गांधी के प्रधानमंत्री रहते समय लिए गए फैसलों का गहराई से विश्लेषण किया है, खासकर आपातकाल के दौरान। लेखक ने इंदिरा गांधी को सिर्फ एक तानाशाह के रूप में नहीं दिखाया बल्कि समझाने की कोशिश की है कि 1970 के दशक में भारत में आर्थिक संकट, राजनीतिक उथल पुथल और सत्ता की खींचतान जैसी परिस्थितियों में उन्होंने क्या और क्यों फैसले लिए।
यह किताब उन साधारण कहानियों को चुनौती देती है जो इंदिरा गांधी को सिर्फ अच्छा या बुरा बताती हैं। इसके बजाय यह उनके फैसलों और व्यक्तित्व को एक गहराई और संतुलन के साथ दिखाती है। यह किताब उनके बारे में जानने के लिए अच्छी है जो भारत के उस दौर और एक जटिल नेता को समझना चाहते हैं।
भारत की पहली तानाशाही लेखक – क्रिस्टोफ़ जैफ़रलॉट और अनिल प्रतिनव
भारत की पहली तानाशाही पुस्तक में इमरजेंसी का विस्तार से विश्लेषण है। नई किताब भारत की पहली तानाशाही आपातकाल 1975-1977 में लेखक क्रिस्टोफ़ जैफ़रलॉट और अनिल प्रतिनव ने आपातकाल के समय भारत में तानाशाही प्रवृत्तियों के उभार का विस्तार से विश्लेषण किया है। किताब बताती है कि कैसे संजय गांधी, जिनके पास कोई आधिकारिक पद नहीं था, फिर भी उन्होंने बड़ी ताकत से फैसले लिए। साथ ही यह भी उजागर किया गया है कि कुछ नौकरशाहों और बड़े कारोबारियों ने सत्ता का गलत इस्तेमाल करने में सहयोग दिया।
लेखक बताते हैं कि पूरे देश में दमन एक जैसा नहीं था। दक्षिण भारत में अपेक्षाकृत कम ज्यादतियाँ हुईं, जबकि कुछ उत्तर भारतीय राज्यों में हालात ज्यादा खराब थे। यह अध्ययन बताता है कि लोकतंत्र में भी कैसे धीरे-धीरे अधिनायकवाद (तानाशाही) की जड़ें जम सकती हैं, और इससे समाज और राजनीति पर क्या असर पड़ता है।
द केस दैट शुक इंडिया लेखक – प्रशांत भूषण
इमरजेंसी पर लिखी गई वरिष्ठ वकील प्रशांत भूषण की किताब ‘The Case That Shook India’ 1975 के उस ऐतिहासिक मुकदमे की पूरी कहानी बताती है जिसने देश की राजनीति को हिला कर रख दिया। यह मुकदमा राज नारायण बनाम इंदिरा गांधी था । जिसमें इलाहाबाद हाईकोर्ट ने पहली बार किसी प्रधानमंत्री का चुनाव अवैध घोषित किया। इस फैसले ने देश में भूचाल ला दिया और जल्द ही आपातकाल लागू कर दिया गया।
भूषण ने इस केस में अदालती दस्तावेजों गवाही और घटनाओं का उपयोग करके दिखाया है कि कैसे राजनीतिक ताकत का दुरुपयोग, पर्दे के पीछे सौदेबाज़ियाँ, और संवैधानिक संस्थाओं पर दबाव डालकर सत्ता बचाने की कोशिश हुई। किताब यह भी दिखाती है कि कैसे एक कानूनी फैसले ने देश में लोकतंत्र और संविधान की असल परीक्षा ली और एक तानाशाही दौर की नींव रखी।
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